महिला सशक्तिकरण की अनोखी मिसाल गढ़ दी मौलाना ने
बच्चे ने कहा: आप फिसले तो पूरी इंसानियत गंदी हो जाएगी
खलीफा के आदेश के बावजूद नहीं किया हुक्मनामे पर दस्तखत
: शाहन के शाह : यह तो सामान्य सी बात थी, हर किसी के मुंह से निकलती ही रहती है। मकसद भी भला ही होता है, लेकिन ऐसी ही भलाई में मिला सबक किसी को महान भी बना सकता है। इतिहास की तवारीख में सोने के अक्षरों में ताजा नजीर के तौर पर दर्ज हैं अबू हनीफा। तो पहले एक नजर उस घटना पर। अबू हनीफा ने एक दिन एक मासूम से बच्चे को कीचड़ पर से निकलते देखा। उस बच्चे पर अचानक ही उनका स्वाभाविक प्रेम उमड़ पड़ा और बोल उठे:- जरा सम्भल कर बेटा। देखना कि कहीं पैर फिसलने से तुम कीचड़ में न गिर जाओ। बच्चा अपने उसी अंदाज में फौरन ही बोल पड़ा:- मैं गिरूंगा तो अकेले ही कीचड़ में जाऊंगा। सम्भलकर चलने की जरूरत तो आप जैसे विद्वानों को है, जो अगर फिसले तो पूरी इंसानियत ही कीचड़ में जा गिरेगी।
अबू हनीफा पर तो जैसे पहाड़ गिर पड़ा। बच्चे की बात में उन्होंने अपने लायक मर्म को जगमगाते देखा और स्तब्ध रह गये। बस उसी पल से उनका जीवन कुछ इस कदर बदल गया कि आने वाले वक्त में उन्होंने अपने ही खलीफा और काजी के आदेश में दस्तखत करने से मना कर दिया। हुआ यह कि किसी मुकदमें में फैसला लिखवाया, उसकी पुष्टि के लिए उसे अपने काजी शाबी और शहर के मौलाना अबू हनीफा के पास भिजवा दिया। इस फैसले में खलीफा ने मुकदमें में गवाहों को भी सुने जाने के आधार पर फैसला दिया था। काजी शाबी ने तो उसे खलीफा का हुक्म मानते हुए दस्तखत कर दिये, जबकि अबू हनीफा ने इनकार कर दिया। उनका कहना था कि गवाहों को देखे और सुने बगैर वह ऐसे किसी भी कागज पर हस्ताक्षर हर्गिज नहीं करेंगे।
जाहिर है, खलीफा की समझ में आ गया और उसने काजी को तलब कर लिया। सवाल पूछा कि क्या गवाहों को देखना सुनना जरूरी है। शाबी ने जवाब दिया कि हां। खलीफा ने फिर पूछा कि फिर आपने क्यों दस्तखत किया। शाबी बोला कि जो गुलाम वह कागज लेकर आया था, वह आपका खासमखास था और मैं इसी से समझ गया कि वह कागज आपने ही भिजवाया होगा। लेकिन खलीफा इस जवाब पर कुपित हो ही गया। बोला:- आपने कायदे के खिलाफ काम किया है और इसलिए अब आप काजी के ओहदे के लायक नहीं रहे।
इसके बाद शुरू हुई नये काजी की तलाश। हालांकि इसके लिए खलीफा ने अबू हनीफा का नाम पहले ही तय कर लिया था, लेकिन परंपरा के मुताबिक चार लोगों पैनल बनाकर उन्हें दरबार में बुलाया गया। हनीफा को पता चला तो वे घबरा गये। यह उनके नित्यकर्मों को खराब करने वाला काम था। जो शख्स दिन में एक हजार बार नमाज पढ़ता हो और जरूरत पड़ने पर इतनी ही बार कुरान का पाठ तक कर लेता हो। नमाज के चलते जिसके घुटनों और माथे पर गट्ठे पड़ चुके हों, उसके लिए काजी का काम कैसे सम्भाला जा सकता था। लेकिन खलीफा का हुक्म टालना भी आसान नहीं था। बाकी संत भी परेशान थे।
हनीफा ने सफियान नाम के संत के पूछने पर कहा कि तुम मुल्क छोड़कर भाग जाओ। सफियान भाग निकले। मशअर को सलाह दी कि तुम पागलपन की हरकतें करो, मशअर ने खलीफा के सवालों के जवाब में कहना शुरू किया:- आपके बेटे नहीं दिख रहे, कहां हैं वे लोग। और हां, आपका मिजाज कैसा है। खाने में क्या-क्या खाया आपने, कोई घरेलू दिक्कत, वगैरह-वगैरह। खलीफा को साफ लगा कि ऐसे शख्स को काजी का ओहदा देना ही पागलपन होगा। मशअर खारिज कर दिये गये। अबू हनीफा का नम्बर आया तो उन्होंने तर्क दिया :- आपके सरदार मेरा हुक्म कभी नहीं मानेंगे, क्योंकि मैं अरब से नहीं हूं। खलीफा और उसके मंत्री एकसाथ बोल उठे:- काजी के लिए इल्म और हौसले की जरूरत होती है, जाति की नहीं। लेकिन अबू हनीफा ने फिर तर्क दिया कि वे खुद को इस लायक नहीं समझते। अपनी बात को लगातार काटा जाता देखकर अब तक खलीफा तैश में आ चुका था। गुस्से में बोला :- तुम झूठ बोलते हो। अबू हनीफा ने फौरन जवाब दिया कि आप मान चुके हैं कि मैं झूठ बोलता हूं, फिर ऐसे झूठे शख्स को काजी नहीं बनाया जाना चाहिए। और अगर मैं सच कहता हूं कि मुझमें वह काबिलियत और लियाकत है ही नहीं, तो मैं कैसे काजी बन सकता हूं।
पूरा दरबार स्तब्ध। सन्नाटा छा गया। लेकिन खलीफा की समझ में आ गया और चौथे शख्स शरीह को नया काजी बना दिया गया। अबू हनीफा के नाम पर कुछ सवाल हो सकते हैं। मसलन हनीफा नाम। लेकिन इसके पहले एक पहाड़ जैसा विशालकाय सवाल। क्या आज के आधुनिक दौर में भी कोई मर्द ऐसा होगा जो अपनी बेटी के नाम से अपनी पहचान बनाने के लिए उसे अपने गोत्र के तौर पर अपना ले। लेकिन अबू हनीफा ने ऐसा ही कर दिखाया। वह भी तब जब परम्पराएं बेहद सख्त और कड़ी थीं। दरअसल, इस नाम को लेकर भी एक दिलचस्प घटना है। हनीफा तो उनकी बेटी का नाम था। दरअसल उनका नाम नेमान था, और पिता का नाम साबित। इसी कारण उनका पूरा नाम नेमान बिन साबित पड़ा। लेकिन एक दिन इस्लामी रिवाजों और रवायतों पर उठे कुछ सवालों का जवाब जब वे नहीं दे पाये तो उनकी बेटी ने अपने तर्कों से उन्हें संतुष्ट कर दिया और इसी के साथ ही अपनी बेटी को सम्मान देने के लिहाज से उन्होंने अपना नाम अबू हनीफा ही रख लिया। अबू हनीफा यानी हनीफा का पिता। इतना ही नहीं, यह उनका निजी फैसला तो जरूर था, लेकिन समाज में उन्हें सर्वोच्च सम्मान मिल चुका था और उनके इस नये नाम को स्वीकार करते हुए अब लोगबाग उन्हें इमाम अबू हनीफा कहने लगे।
नमाज और कुरान पढ़ने की उनकी तादात के बारे में कहा जाता है कि पहले वे आठ वक्त की नमाज ही पढ़ते थे। लेकिन एक दिन सुना कि कोई उनके बारे में कह रहा है कि वह सौ बार नमाज पढ़ते हैं, सो उन्होंने यह संख्या बढ़ा कर सौ कर दी। फिर सुना कि कोई दो सौ बोला, तो यह संख्या दो सौ हुई। इसी तरह यह संख्या एक हजार तक पहुंच गयी। लोगों ने सवाल पूछा तो पूरी मासूमियत से जवाब मिला कि मेरा ईमान गवारा नहीं करता कि उन लोगों में शामिल होऊं जिनके बारे में झूठी बातें कही जाती हैं। वे तो अपना पैर भी सीधा नहीं करते थे। अकेले में भी नहीं। पूछने पर बोले कि दूसरों के सम्मान में पैर नहीं फैलाकर बैठता, तो अकेले में अल्लाह से बेअदबी क्यूं करूं।
हनीफा सूद को हराम मानते थे। मौत के डर से भी उन्होंने जुल्म का साथ देने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि कयामत के दिन तो जालिमों के साथ उनके मददगार भी तलब किये जाते हैं। एक बार उनके पास एक बेईमान शख्स अपने पक्ष में गवाही देने की गुजारिश करने आया, तो वे हमाम से नंगे ही निकल आये। उस शख्स ने मजाक करते हुए पूछा कि आपकी आंखों की रौशनी कब से चली गयी, हनीफा ने फौरन जवाब दिया:- जब से तुम्हारी आंखों से शर्म चली गयी।
लेखक कुमार सौवीर सीनियर जर्नलिस्ट हैं. वे कई अखबारों तथा चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स अखबार में छप चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.