: राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भूमध्य रेखा रहे पंडित : शुक्ल के आलोचकों ने उनके व्यक्तित्व को कमतर करने कुचक्र रचे :
कनक तिवारी
रायपुर : तत्कालीन सीपी और बरार तथा पुनर्गठित मध्यप्रदेश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भूमध्य रेखा रहे पंडित रविशंकर शुक्ल छत्तीसगढ़ के भीष्म पितामह की तरह इतिहास में दर्ज हैं। उनके समकालीन पंडित सुन्दरलाल शर्मा, माधवराव सप्रे, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल सिंह, वामन बलीराम लाखे, विश्वनाथ यादव तामस्कर, कुंजबिहारी लाल अग्निहोत्री, ई. राघवेन्द्र राव आदि अनेक दुर्घर्ष योद्धा हुए। रविशंकर शुक्ल को इतिहास ने केन्द्रीय भारवाहक के रूप में अपने प्रदेश में बीसवीं सदी का इतिहास ढोने को कहा। असाधारण नेतृत्व क्षमता का बीजगणित उनके आत्मविश्वास में था। उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व उनकी आत्मा का बाह्य साक्षात्कार कहा जा सकता है। रविशंकर शुक्ल के अवसान से छत्तीसगढ़ में एक युग ही समाप्त हो गया। उसकी पुनरावृत्ति अब तक नहीं हो सकी है। शुक्ल शिक्षक, लेखक, अधिवक्ता, विचारक, पत्रकार आदि रूपों में प्रतिभा से परिचय कराते हैं। रविशंकर शुक्ल होने का अर्थ तब परवान चढ़ा, जब कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें तत्कालीन विवादास्पद और संकुल परिस्थितियों में प्रदेश का शीर्ष नेतृत्व सौंपा। शुक्ल ने असाधारण सूझबूझ, धैर्य, दृढ़ निश्चय और निर्णय क्षमता का इजहार करते हुए समर्थकों और आलोचकों को एक साथ चमत्कृत कर दिया। गांधी सहित कांग्रेस के अनेक राष्ट्रीय नेताओं के सामने कई ऐसे मुद्दे आए। रविशंकर शुक्ल के निर्णयों से उनकी पूरी सहमति नहीं दिखी, लेकिन शुक्ल के विरोधियों को आखिर हथियार डालने पड़े।
शुक्ल के आलोचकों ने उनके व्यक्तित्व को कमतर करने कुचक्र रचे। महाकोशल में जन्मे, छत्तीसगढ़ की कर्मभूमि से उठकर रविशंकर शुक्ल बरार के मुख्यालय नागपुर में शीर्ष प्रशासनिक पद पर रहकर मध्यप्रदेश का पर्याय हो गए थे। वे सफल शिक्षाशास्त्री या अधिवक्ता बन सकते थे। स्वतंत्रता आन्दोलन का आव्हान उनके जीवन को द्युतिमय बना गया। उनका निवास स्वाधीनता आन्दोलन का धड़कता दिल रहा है। उसकी अनुगूंजें इतिहास की पोथियों में अब तक प्रतिध्वनित हैं।
शुक्ल में अद्भुत मानवीय गुण थे। बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर के रूप में आर.सी.पी.वी. नरोन्हा ने अपनी बीमार पत्नी की तीमारदारी को लेकर शुक्ल द्वारा विमान भेजने से लेकर उनके इलाज के दौरान निजी उपस्थिति का मार्मिक ब्यौरा लिखा है। उस समय महामारी से जूझ रहे बस्तर को कलेक्टर की बेसाख्ता जरूरत थी। यह शुक्ल जैसे कद्दावर नेता का कमाल था जो लौहपुरुष तथा चाणक्य समझे जाने वाले गृहमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से संगति बिठाकर उन्हें नियंत्रित कर सके।
रविशंकर शुक्ल के लिए शिक्षा पहली प्राथमिकता रही है। बुनियादी तालीम के समानान्तर रविशंकर शुक्ल ने विद्या मंदिर योजना शिक्षाशास्त्रियों के विचारण की दहलीज पर रख दी। उसकी गांधीजी ने खुले मन से प्रशंसा की है। कालजयी योजनाओं का यही हश्र होता है कि उन्हें इतिहास के कबाड़खाने में दफ्न कर दिया जाए। पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय सम्भवतः शुक्ल की स्मृति को संजोए रखने की सबसे अच्छी धरोहर है। मुख्यमंत्री के रूप में शुक्ल प्रथम जनसेवक और विधान पुरुष भी थे। यादों की गठरी लादे इतिहास ही पहरेदारी करता है कि कहीं कालजयी व्यक्तित्व गुम न हो जाएं।
रविशंकर शुक्ल का जीवन घटनाओं, टिप्पणियों और विवादों से परे नहीं रहा है। उनके खिलाफ तरह-तरह की अफवाहें और किस्से भी गढ़े गए हैं। भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना की जिद की वजह से शुक्ल ने जवाहरलाल नेहरू का क्रोध मोल ले लिया था। उन्हें 1957 के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने का फैसला कांग्रेस उच्च कमान ने कर लिया था। इसलिए शुक्ल को जानलेवा दिल का दौरा पड़ा। शुक्ल पर सामंतवादियों को भी संरक्षण देने का आरोप लगता रहा है। तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन किया जाए तो बहुत से आरोप खारिज हो जाते हैं। उन्होंने कई राजनीतिक समझौते और हृदय परिवर्तन भी किए। मंचेरशा आवारी, खूबचंद बघेल, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, बृजलाल वर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, बृजलाल बियाणी जैसे कई दिग्गज राजनेताओं के साथ शुक्ल के खट्टे मीठे रिश्तों और अनुभवों की ढेरों स्मृतियां इतिहास के जेहन में होंगी।
शुक्ल में असाधारण साहस, सूझबूझ और तत्काल निर्णय लेने की क्षमता का आकलन इतिहास कर रहा है। छत्तीसगढ़ में शिक्षा के प्रसार का जनक भी शुक्ल को ही करार दिया जाना बेहतर होगा। शुक्ल इस अर्थ में बुनियादी छत्तीसगढ़िया थे जिनकी असाधारण तादात्म्य क्षमता ने उन्हें एक साथ महाकोशल, छत्तीसगढ़ और विदर्भ का जननेता बना दिया था। शुक्ल की कदकाठी का राजनीतिक उत्तराधिकारी परिदृश्य पर बाद में नहीं आया।
शायद कुदरत ने शुक्ल को नेता बनाने के लिए उनकी कदकाठी का ख्याल रखा था। शुक्ल की मूर्ति तक लगवाने के लिए उनके अनुयायियों को मशक्कत करनी पड़ी। वह राजनीति के बदलते असंवेदनशील मूल्यों का फूहड़ उदाहरण है। छत्तीसगढ़ की महत्वाकांक्षाओं, चुनौतियों और परिवर्तनों के संदर्भ में उनका योगदान सबसे बड़ा गिना जाएगा। कुल मिलाकर रविशंकर शुक्ल का व्यक्तित्व जीवित घटना की तरह लगता है।
रविशंकर शुक्ल वटवृक्ष थे। उनके जाने के बाद वह परम्परा शाखाओं, फलों और पत्तियों में टूट टूट कर बिखर गई। उनके अजातशत्रु व्यक्तित्व में कुछ लोगों को एक सात्विक आतंक दिखाई पड़ा था। उनकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने के मामले भी कुटिल राजनीतिक विवादों के हवाले किए गए।
पंडित रविशंकर शुक्ल न केवल मध्यप्रदेश बल्कि पूरे हिन्दुस्तान के केन्द्रीय नेताओं में एक रहे हैं। उनका चुंबकीय व्यक्तित्व, उदार दृष्टिकोण और आलोचकों तक को आत्मसात कर लेने की प्रवृत्ति सामाजिक जीवन में अब दिखाई ही नहीं पड़तीं।
कक्का जी की वैयक्तिक, राजनीतिक और सामाजिक खूबियों के हजारों जीवित गवाह आज भी उनको नम आंखों से याद करते हैं।