: तनिक सोचो तो कि भिक्षा क्यों चाहता है कोई हठयोगी योद्धा : ईश्वर न करे कभी आपका बुरा दौर आये : बुरे समय में अपने किनारा कस लेते हैं : पत्रकारिता में नंगा अवधूत- तीन :
कुमार सौवीर
लखनऊ : सामान्य तौर पर यही ताना मारा जाता है कि भाई , अपने स्वार्थ बस ही लोग पत्रकारों को महत्व देते है। काम निकलते ही, मतलब खबर छापने और चलाने के बाद थैंक्स तक नहीं बोलते। बुरे समय में अपने किनारा कस लेते हैं, औरों की बात ही छोड़िए।
ऐसे आक्षेपों-तानों पर भी मुझे ऐतराज है। मेरा बुरा दिन ? अरे जनाब, मैं पिछले साढ़े छह साल से बुरे दिन झेल रहा हूं। जब से नौकरी छोड़ी, तब से बुरा ही बुरा झेल रहा हूं। न खाने का ठिकाना, न भविष्य। नौकरी में यह बवाल नहीं था। मालिक जो भी कम-बेसी मानता था, हमारे सामने फेंक देता था और हम उसे उसकी कृपा मान कर उसे शिरोधार्य कर देते थे। पालतू कित्तू टॉमी-सेक्सी-टायगर-टॉर्जन की तरह मालिक के एसी ऑफिस में आराम से रहते थे। गाहे-बगाहे पेडीग्री भी मिल जाती थी। लेकिन नौकरी छोड़ते ही पूरा किस्सा ही बदल गया। टॉमी से हम बहादुर-सुल्तान बन गये, जो सड़क पर आवारा घूमा करता है। फिर जब अपना पॉर्टल चलाना शुरू किया तो लोग मुंह बिचकाने लगे, सामने आने से बचने लगे कि कुमार सौवीर तो भिखमंगा है, भिक्षा मांगता है। और फिर उसके बाद से हमारी हालत कलुआ या भुर्रा जैसों नामों की तरह चस्पां हो गया।
लेकिन कोई भी यह नहीं कहता कि कुमार सौवीर भिक्षा क्यों मांगता है। एक योद्धा, जो मूलत: सौवीर है, सौ वीरों के बराबर है, वह एक ओर तो किसी दुर्धर्ष योद्धा की तरह बेईमानों-दलालों के खिलाफ तलवार-बाजी करता है, संहार करता है, उनकी चड्ढी उतारता है, वही बहादुर शख्स सबके सामने भिक्षा मांगता है।
मेरे भिक्षा मांगने पर तुम मुंह बिचकाते हो, मुंह बनाते हो, बगलें झांकते हो, बचने की कोशिश करते हो कि कुमार सौवीर से आमना-सामना न हो जाए और वह भिक्षा न मांग ले। जब सामने आ जाता है कुमार सौवीर, तो तो तो तो, जल्दी ही दे दूंगा आपकी भिक्षा। फिर लापता हो जाते हो गधे के सींग की तरह। फिर जब अगली मुलाकात होती है, तो उस भिक्षा देने-मांगने के विषय पर भी विषयांतर कर देते हो। लेकिन जैसे ही तुम्हें हमारी जरूरत होती है, तो फौरन पहुंच जाते हो। रात-बिरात फोन कर देने में नहीं हिचकते हो तुम। अपनी समस्याएं बताते हो, दूसरों की चुगली खाते हो, चाहते हो कि मेरे माध्यम से तुम्हारा विरोधी चारों खाने चित्त हो जाए। ऐसी चोट पहुंचे, कि वह फिर उठ न सके। ऐसा करो कि सांप भी मर जाए, और लाठी पर भी कोई ठेस न आये।
अब अब यह बताओ, कि तब बेशर्म कौन है। मैं या तुम।
आपने कभी सोचा है कि मैं आखिर ऐसा क्यों करता हूं?
इसलिए कि विज्ञापन नहीं मांगता, चंदा भी नहीं मांगता। क्योंकि ऐसा मांगने में दाता की शर्तें शामिल हो जाती हैं। जबकि भिक्षा में दाता की कोई शर्त नहीं होती, केवल उसकी क्षमता और इच्छा पर ही निर्भर होता है कि देना भी चाहता है या नहीं और अगर हां तो कितना। जब ज्यादा संकट में होता हूं, तो अपने मित्रों से मांग लेता हूं, लेकिन उधार, चंदा या विज्ञापन नहीं, केवल भिक्षा। दोनों हाथ फैला कर भिक्षा। अलख-निरंजन ललकारते हुए। भिक्षा मांगता हूं, चुम्मा नहीं।
लेकिन बदले में न तो कोई वायदा करता हूं, और न ही कोई आश्वासन-दिलासा। संकल्प जरूर लेता हूं कि चाहे कोई मुझे भिक्षा दे या न दे, मैं उसकी जायज प्रताड़ना को अपनी प्रताड़ना मान कर जूझूंगा, युद्ध करूंगा। जिसकी सौ बार जरूरत पड़े, वह मुझे भिक्षा दे। न देना चाहता हो तो मत दे। भाड़ में जाए। न कोई द्वेष और न ही कोई राग-प्रेम।
मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, यह मेरा सामाजिक दायित्व है। तुम संकट में हो, और चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूं। तो मैं खड़ा रहता हूं। क्योंकि तुम संकट में हो, और तुम्हारा सहयोग करना मेरा सामाजिक दायित्व है। जीवन में तुम संकट से परे रहो, तुम्हारे संकट दूर होते रहें। कुमार सौवीर संकटमोचन की तरह तुम्हारे आसपास ही रहें, तो मैं खड़ा रहता हूं। क्योंकि यह मेरा सामाजिक दायित्व है।
और अब अपने बारे में भी तो तनिक सोचो कि क्या मेरे प्रति तुम्हारा कोई दायित्व है या नहीं।
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