प्रस्ताव तो पूरी काशी को वर्ल्ड हेरिटेज लायक मानने का है, तैयारी करनी होगी
काशी के घाट यदि खोखले हो रहे हैं तो सिंचाई विभाग को कार्रवाई करनी होगी
कुमार सौवीर
लखनऊ: गुजरात के पाटन जिले की रानी की वाव (बावड़ी) को विश्व विरासत का दर्जा मिलने के साथ उम्मीद की जा सकती है अगला नम्बर यूपी के लखनऊ या वाराणसी की विरासतों का हो जाए। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नवनियुक्त महानिदेशक डॉक्टर राकेश तिवारी इस बारे में कोई ऐलानिया बात तो नहीं करते हैं, लेकिन उनका यह तो कहना है ही कि यूनेस्को में यूपी के जिन मामलों को विश्व विरासत दर्जा दिलाने की बात की जा रही है, उनमें वाराणसी, सारनाथ और लखनऊ का ईमामबाड़ा भी है। सात मंजिली वाव बावड़ी को इस साल ही यूनेस्को से वर्ल्ड हेरिटेज के तौर पर मान्यता मिलनी है। राकेश तिवारी आज लखनऊ में थे। कुछ ही दिन पहले भारत सरकार ने उन्हें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में महानिदेशक पद पर नियुक्ति पर अंतिम मुहर लगायी थी।
मूलत: देवरिया/ बस्ती से जुड़े, बिसवां (सीतापुर) में जन्मे अन्तत: लखनऊ निवासी हो चुके राकेश तिवारी छह महीना पहले ही यूपी पुरातत्व विभाग के निदेशक पद से रिटायर हुए थे। सन-78 में सर्वेक्षण सहायक के पद से होते हुए वे सन-89 को वे विभाग में निदेशक बने थे और इस पद पर वे सन-13 में सेवानिवृत्त हुए। राकेश तिवारी का नाम तो तब धूमकेतु की तरह चमका, जब उन्होंने हड़प्पा और मेहनजोदाड़ो की सभ्यता के समानान्तर गंगा नदी की घाटी में किसी सभ्यता को खोजने के लिए संत कबीर नगर (खलीलाबाद) के लहुरादेवा क्षेत्र में उत्खनन किया। यह काम राकेश तिवारी के निर्देशन में ही हुआ और उसमें स्पष्ट पता लगा कि लहुरादेवा की सभ्यता ईसा से सात हजार साल से लेकर बुद्ध-काल यानी ईसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों तक की थी और यह पूरी तरह समृद्ध थी। इतना ही नहीं, लखनऊ की छतरमंजिल इमारत को सीडीआरआई के कब्जे से हटाकर उसे पुरातत्व विभाग को सौंपने की कवायद राकेश तिवारी ने ही की थी। प्रस्तुत है राकेश तिवारी के साथ हुई बातचीत के अंश।
अपने इस नये दायित्व से पहले आप टर्की गये थे ?
दरअसल, नेशनल ज्योग्राफी सोसायटी ने विश्व की महानतम संस्कृतियों पर बातचीत करने के लिए एक वार्ता-श्रंखला छेड़ी है। इसकी पहली श्रंखला ग्वाटेमाला में पिछली बार हुई थी। इस बार टर्की का नम्बर आया। और मैं वहां आमन्त्रित था।
इसमें आपकी उपलब्धि ?
मिस्र, मेसोपोटामिया, माया, हड़प्पा और चीन की संस्कृतियों को इस सोसायटी ने अपनी श्रंखला में शामिल किया था। सोसायटी के लोगों ने मुझे गंगा-घाटी की संस्कृति पर व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया था। दरअसल हड़प्पा संस्कृति की ही समानान्तर काल है गंगा-घाटी की संस्कृति। गंगा-घाटी संस्कृति दरअसल नवपाषाण काल यानी नियोलिथिक एज की है।
पुरावशेषों और कलाकृतियों को दर्ज कराने के लिए एक अभियान छेड़ा गया था। उसका क्या हुआ ?
सन-72 में ऐसा अभियान छेड़ा गया था। उसके बेहिसाब लाभ मिले। इस समय भी इस अधिनियम के तहत कार्य हो रहा है। यह दायित्व होता है सरकार का। लेकिन ऐसे में दर्ज सम्पत्तियों का खुलासा किया जा पाना न तो उचित होता है और न ही सुरक्षित।
हाल ही में बिहार के राजगीर पर्वत से चार जैन मूर्तियां चोरी हो गयीं। क्या आपके विभाग की व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार नहीं ?
यह विभागीय व्यवस्था के साथ ही कानून-व्यवस्था की भी बात है। मगर इससे भी बड़ी, या सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है हमारी पुरा-सम्पदा के प्रति जनता-समाज का दायित्व।
तो ऐसी विरासतों को कैसे सम्भाला जा सकता है, आपके ?
हमारा विभाग देश में तीन हजार से भी ज्यादा विशालतम पुरा-सम्पत्तियों की निगरानी करता है। यह बहुत बड़ा दायित्व है। हम इतना ही कर लें, तो बहुत है। वैसे हमारे देश भर में पुरा-सम्पत्तियां बेशुमार पड़ी हैं। गांव, जवार, गली-मोहल्ले में आपको पुरातत्व सम्पत्तियां मिल जाएंगी, और कई जगहों पर अतिक्रमण हो जाता है, जहां चोरी हो जाती है। यकीन मानिये कि हम भरसक कोशिश करते हैं कि इन्हें सम्भालें। लेकिन हमारे पास संसाधन भी इतने नहीं। ऐसे में गांव-पंचायत, ग्रामीण और समाज को भी अपनी पुरातत्व विरासतों के प्रति दायित्व भाव जगाना होगा।
और भित्ति चित्रों और फॉसिल की हालत ?
मैं मानता हूं कि ऐसे भित्ति-चित्रों की हालत कहीं कहीं खराब है। मिर्जापुर, सोनभद्र, इलाहाबाद और बांदा में सैंड-स्टोन की चट्टानों-गुफाओं में बने इन चित्र वाकई बेमिसाल है। आस्ट्रेलिया के ककादू नेशनल पार्क ने तो अपने ऐसे इलाके को बाकायदा संरक्षित कर लिया है, लेकिन हमारे यहां यह काम कर पाना बेहद मुश्किल है। वजह यह कि हमारे यहां इलाका ज्यादा विशाल है और उस पर तुर्रा यह कि इस इलाके पर आबादी की सघनता बेहद और बेकाबू भी है। ऐसे में जन-जागरूकता ही महत्वपूर्ण है। ग्राम-सभा, ग्रामीण और क्षेत्र के जागरूक लोगों में इस बारे में जिम्मेदारी बढ़ानी होगी।
छतरमंजिल खाली कराना तो आपकी उपलब्धि है ?
नहीं, इसके लिए तो हमारे तत्कालीन अधिकारियों और उनके बाद के उत्तराधिकारियों को इसका श्रेय जाता है।
उप्र में पुरातत्व सम्पत्तियों की हालत ठीक नहीं बतायी जाती है। मसलन चिडि़याघर स्थित अजायबघर में रखी ममी की हालत खराब है।
यह मेरे विभाग का काम नहीं है। हां, मैं कुछ समय तक यहां का पदेन निदेशक रहा हूं और इसीलिए मुझे पता है कि यहां रखी ममी की एक पैर का अंगूठा खुल गया है। हालांकि यह कोई खतरनाक बात नहीं है, लेकिन भविष्य में हो भी सकती है। और जहां तक मुझे जानकारी है, सरकार ने इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम बनायी है और जरूरत पड़ी तो यह टीम मिस्र जाकर मदद मांग सकती है।
उन्नाव वाले डौंडियाखेड़ा का उत्खनन काफी विवादों में रहा। आपकी राय ?
कोई टिप्पणी नहीं
पुरातत्व क्षेत्र की नीति पर आपका क्या मानना है ?
यह सही है कि देश में पुरातात्विक के विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिए ज्यादा संसाधन मुहैया कराया जाना चाहिए। लेकिन मैं मानता हूं कि केवल निधि बढ़ा देना ही महत्वपूर्ण नहीं होगा। हमें विशेषज्ञों की फौज की जरूरत पड़ेगी। ताकि एजूकेशन इम्प्लायमेंट हो सके। हमें निधि से ज्यादा तो एक्सपर्टीज की जरूरत है।
आपकी प्राथमिकताएं ?
हमारा संगठन पुरातात्विक शोध के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र है। मेरी कोशिश होगी कि इसमें संवर्द्धन हो, ताकि नयी पौध को मजबूत किया जाए। हम सभी इस काम के लिए अपने अनुभवों को समर्पित करेंगे। सर्वेक्षण, उत्खनन, संरक्षण और जानकारियों का प्रकाशन हमारी प्राथमिकताओं में है।
श्री राकेश तिवारी के साथ हुई यह बातचीत लखनऊ से छपने होने वाले दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट समाचार-पत्र के 21 मई-14 के अंक में प्रकाशित हो चुका है।