हम लोगों ने छेड़ दी फैसलाकुन जंग, आमरण अनशन शुरू

मेरा कोना

: फिर मैं समझ गया अपनी ही केंचुल में सिमटे तथाकथित क्रांतिकारियों का चरित्र : ज्यादातर क्रांतिकारियों में होता है खुद के प्रति श्रेष्ठतम सम्मान का पाखण्ड : नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे दर्ज चार बरस ( सात ) :

कुमार सौवीर

लखनऊ : वैसे आपको एक बात बताऊंगा जरूर, कि ओपी श्रीवास्तव के व्यवहार से बेहद प्रभावित हुआ था। बावजूद इसके कि उन्होंने मेरी कीमत लगाने की जुर्रत की थी। लेकिन उन जैसे व्यक्ति से उससे ज्या‍दा और क्या हो सकता था। माना कि वे सहारा इंडिया के दूसरे नम्बर की हैसियत रखते थे, लेकिन पहले दर्जे वाली हैसियत वाले सुब्रत राय के कोसों-योजनों दूर निचले पायदान पर ही तो। जो कुछ भी उन्होंने मुझसे कहा उससे ज्यादा वे कर भी तो नहीं सकते थे, यह मैं खूब जानता था। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने अपना श्रेष्ठ्तम प्रदर्शन किया, मेरे सन्दर्भ में। यकीन मानिये, कि मैं सहारा इंडिया में ओपी श्रीवास्तव और बाद के विवेक सहाय जैसे लोग सहारा इंडिया के पाप-कुण्ड के अक्षुण-निष्पाप आत्मा हैं। वे वाकई सोचते और करते थे, बिना किसी ढिंढोरा मचाये हुए। हां, सुब्रत राय नामक जैसा फोबिया उन लोगों पर अगर हावी रहता था, तो उसमें हैरत या अचरज क्यों? उन्होंने अगर मुझे एक लाख रूपयों की रिश्वत की पेशकश की थी, तो भी उसमें उनका प्रोशनलिज्म ही तो था। हां, इतना जरूर था कि चूंकि मैं उस आन्दोलन का सर्वाधिक मजबूत पहरूआ था, इसलिए उन्होंने मुझे खरीदने का प्रस्ता‍व रखा। अब इसमें हमारे आंदोलन को तबाह करने की मंशा थी, इसलिए मैंने उसे खारिज कर दिया था। लेकिन जो शैली उन्होंने अपनायी उसका तो मैं आज तक मुरीद हूं।

खैर, ओपी श्रीवास्तव के घर के लौटते ही मैं कीर्ति प्रेस के बाहर बने धरना स्थल पर पहुंच गया। अरे हां, आपको बताना भूल गया हूं कि इसके पहले ही हम लोगों ने राजधानी के मजदूर आंदोलन को अपने आंदोलन से खींचकर लाने की कवायद छेड़ थी। हमारा आंदोलन अच्छा-खासा हो चुका था। बिला-शक, सुब्रत राय और सहारा इंडिया प्रबंधन ने हमारे आंदोलन की तीव्रता को महसूस करके ही ओपी श्रीवास्त‍व के घर मुझे साजिशन बुलाया था। वे चाहते थे कि अगर कुमार सौवीर इस आंदोलन से टूट जाएंगे तो शान-ए-सहारा के श्रमिक आंदोलन को आसानी से बिखेरा-कुचला जा सकेगा।

हां, तो धरना स्थल पर मैंने श्याम अंकुरम को अलग बुलाया और ओपी श्रीवास्तव के साथ हुई सारी बातचीत का ब्योरा तफसील से दे दिया। लेकिन यह बात सुनते ही श्याम अंकुरम बिलकुल हत्थे से उखड़ गया। उसने बाकायदा मुझे गंदी गालियां दीं और मुझे दलाल साबित करने लगा। उसका ऐतराज था कि जब तुम श्रमिकों के साथ हो और नेतृत्व कर रहे हो, तो तुम ओपी श्रीवास्तव के घर क्यों  गये? उसका आरोप था कि तुम मूलत: दलाल हो और हमेशा दलाली ही करते रहोगे।

अब मैं क्या करता? श्याम मुझे समझने की कोशिश ही नहीं कर रहा था और जो आरोप वह मुझ पर लगा रहा था, वे बेहूदा है और यह भी कि मैं कुछ भी हो, मैं दलाल नहीं हो सकता। लेकिन दो दिनों तक श्याम अंकुरम ने मुझे जबर्दस्त प्रताड़ना दी। लेकिन चूंकि मैं उससे प्यार करता था, मजदूरों का नेता था और मेरी किसी प्रतिकूल हरकत श्रमिक आंदोलन को ठेस पहुंचा सकती थी, इसलिए मैं उसके ऐसे सारे आरोपों को कांधे की धूल की तरह झाड़ता रहा। हालांकि उसके बाद भी उसने मेरे खिलाफ लगातार वमन किया। कभी बेईमान, भ्रष्ट तो कभी साम्प्रदायिक तक करार दे दिया। मेरे पीठ पीछे तो कभी मेरे सामने भी। सरेआम भी कई बार किया। उसके शब्द–बाण इतने तीखे और विषभरे होते थे, कि कोई भी तिलमिला जाए। लेकिन मैं हर बार उसकी ऐसी अभद्रताओं को लगातार भूलने की कोशिश करता रहा। न जाने क्या कारण था कि जब उसे मेरी आवश्यकता होती थी, उसका व्यवहार बहुत आत्मीय हो जाता था, लेकिन बाकी वक्त में उस पर ज्यादा पढ़े होने का आडम्बर छाया रहता था। वह तो मैंने बाद में समझा कि यह ज्यादातर नव-वामपन्थियों का चरित्र है। खुद को श्रेष्ठ‍ और बाकी लोगों को तुच्छ‍ मानने का पाखण्ड। दरअसल, ऐसा करके ये लोग खुद को श्रेष्ठतम साबित करते रहते थे। आखिरकार मैंने तंग आकर अंतिम रूप से सम्बन्ध खत्म कर दिये। लेकिन यह तो काफी बाद की बात है। उस पर बातचीत बाद में करूंगा।

खैर, शान-ए-सहारा के आंदोलन को लेकर उमाशंकर मिश्र और शिवगोपाल मिश्र वगैरह बड़े नेताओं से हम लोगों की सक्रियता बढ़ने लगी। कीर्ति प्रेस की गेट-मीटिंग लगातार होने लगी। और आखिरकार एक दिन हम लोगों ने ऐलान कर दिया कि कीर्ति प्रेस के गेट पर 18 जून-85 से अनिश्चितकालीन धरना शुरू हो जाएगा और तब तक अगर मांगें स्वीकार नहीं की गयीं तो तीन जुलाई-85 से आमरण अनशन किया जाएगा। तय हुआ कि आमरण अनशन पर श्याम अंकुरम बैठेगा और मैं पूरे आंदोलन का नेतृत्व करूंगा।

18 जून-85 को कीर्ति प्रेस के बाहर जन-सैलाब उमड़ पड़ा। हम लोगों ने राजधानी लखनऊ के श्रमिक आंदोलन पर जो एकजुटता दिखायी थी, उनकी मदद की थी उसका बदला इन श्रमिकों-मजदूरों ने हमारे आंदोलन को बाकायदा संजीदगी वाली हमदर्दी के साथ अदा किया था। इतना ही नहीं, रोजाना सुबह-सुबह शहर भर के श्रमिक हमारे आंदोलन में हवन करने आ जाते थे। कुछ तो स्थाई तौर पर अपना डेरा डाल चुके थे। कहने की जरूरत नहीं कि अपनी सफलता को देख कर मैं मन ही मन कुप्पा हो चुका था। बावजूद इसके कि शान-ए-सहारा के प्रबंधन और सहारा इंडिया के सुब्रत राय ने इस बारे में मेरे खिलाफ स्पष्ट तौर पर कड़ा मन बना रखा था। लेकिन श्रमिकों की जबर्दस्त एकता और एकजुटता ही उनकी सख्ती के खिलाफ हमारी मजबूती बढ़ाती रही थी।

दो जुलाई-85 की शाम को तय हो गया कि तीन जुलाई से शुरू होने वाली अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर श्याम अंकुरम बैठेगा और मेरी भूमिका इस आंदोलन को दूसरे श्रमिकों के संगठनों से सम्पर्क करने और हमारे आंदोलन को मजबूत करने की होगी। ऐन दिन सुबह दस बजे के करीब हमारी गेट मीटिंग के चलते हजारों श्रमिकों का रेला उमड़ने लगा। ढोल-मंजीरा और क्रान्तिकारी गीतों से पूरा सुंदरबाग गूंजने लगा। शहर के मानिन्द श्रमिकों ने हम लोगों के आंदोलन की सफलता की कामना की और करीब दोपहर बारह बजे श्याम अंकुरम अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठ गया।

उधर सहारा इंडिया और शान-ए-सहारा के दर्जनों वरिष्ठ अधिकारियों ने कीर्ति प्रेस पर जमावड़ा जमाया और कई दौर में जमकर दावतें उड़ायीं। जाहिर है कि उनकी यह हरकतें हम लोगों के आंदोलन की खिल्ली उड़ाने के लिए ही थी। लेकिन इसके अलावा हम कर ही क्या सकते थे। हां, केवल इतना ही कर सकते थे कि उनकी इस कमीनगी को हम उनके खिलाफ अपने हथियार की धार की ऊर्जा के तौर पर तब्दील कर दें। और हम लोगों ने यही किया। पहले दिन का आमरण अनशन बेमिसाल रहा। देर रात तक करीब दो-ढाई हजार श्रमिक हमारे आंदोलन से जुड़े रहे, लेकिन हम लोगों ने चाय की एक घूंट तक नहीं पी।

आनन्द स्वरूप वर्मा जी हालांकि अभी तक शान-ए-सहारा से अलग हो चुके थे, और हम लोगों के आंदोलन के साथ थे। मगर खुलेआम नहीं।

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