चुन-चुन कर मार डाला सिमी आतंकियों को हत्‍यारी भोपाल पुलिस ने

सैड सांग

: एक के बदले आठ मार दिया। शर्म करो, यह तुम्‍हारी पुलिस : हकीकत तो यही है कि मारे गये सारे अभियुक्‍तों पर दुर्दान्‍त अपराध थे : वीडियो को गौर से देखिये कि एकाध गंड़ासे जैसे हथियारों को छोड़ बाकी सब निहत्‍थे थे, और भारी पुलिस अत्‍याधुनिक असलहों से लैस :

कुमार सौवीर

लखनऊ : भोपाल जेल से भागे और फिर मार डाले गये आतंकवादी संगठन सिमी के अभियुक्‍तों की मौत का वीडियो सार्वजनिक हो चुका है। यह भी साफ हो चुका है कि यह आठों अभियुक्‍तों पर जो भी अपराध दर्ज हो चुके थे, वह दुर्दान्‍त और देशद्रोह की श्रेणी के हैं। सच बात तो यही है कि अगर वे पुलिस गोली से बच गये होते तो अदालत में उनमें से कुछ को मौत की सजा और और बाकी को शायद कम से कम उम्रकैद की सजा जरूर मिल सकती थी। वहज यह कि इन सभी पर क्रूरतम श्रेणी की हत्‍या और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे अपराध दर्ज किये थे पुलिस ने।

यह भी कमाल का वीडियो है। आप उसे देखिये तो आपको साफ पता चल जाएगा कि इस वीडियो में, पुलिस की शौर्य-गाथा और अपराधियों की असलियत के साथ ही साथ उन अपराधियों को बेगुनाह करने की साजिशें कैसी बुनी-गढ़ी गयी हैं। वीडियो को देखते वक्‍त जरा इन तर्को पर जरूर गौर कीजिएगा कि आप भारत के नागरिक हैं, किसी धर्म, समुदाय, राजसत्‍ता या पुलिस के कारिन्‍दे नहीं हैं। मुझे तो इसमें कई तर्क-बिन्‍दु साफ-साफ दिखे हैं।

तर्क: एक

आप गौर से देखिये इस वीडियो को। दो लाशें दिख रही हैं एक वीडियो में। साफ आवाजें आ रही हैं गोलियों की। धांय धांय धांय धांय। लेकिन इसी बीच सादे कपड़ों में दो पुलिसवाला लाशों के बीच चहलकदमी कर रहा है। उसे गोलियों से डर नहीं लग रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई कींचड़दार पार्क में चहलकदमी कर रहा हो। जाहिर है कि इस पूरे दौरान मुठभेड़ इकतरफा ही है।

तर्क : दो

वह एक लाश के पास आता है और फिर उसकी पैंट में छिपे गंड़ासा नुमा तेज धारदार हथियार को निकाल कर दिखाता है। जाहिर है कि मारे गये अपराधी निर्दोष, मासूम, और निरीह नहीं थे, जैसा कि मारे गये आतंकियों के समर्थक दावे कर रहे हैं।

तर्क : तीन

इस हादसे का वीडियो कम से कम तीन लोगों-पुलिसवालों ने बनाया है। यानी मुठभेड़ के दौरान पुलिसवालों के पास इतना समय, साहस, हिम्‍मत और हौसला बना रहा कि वह उस मुठभेड़ की वीडियोग्राफी अपने मोबाइलों से बनाते रहें, बतियाते रहें। हैरत की बात है कि इसी दौरान एक गुस्‍साई आवाज साफ गूंजती है कि इधर गोली चल रहा है, और तुम लोग वीडियो बना रहे हो। जाहिर है कि इस पूरे दौरान हड़बड़ी का माहौल नहीं था। केवल ऑपरेशन चल रहा था।

तर्क : चार

मैंने चित्रकूट के राजेपुर में डाकू घनश्‍याम के साथ हुई पुलिस मुठभेड़ का डेढ दिनों तक की मुठभेड़ शूट किया था। मैं महुआ न्‍यूज चैनल में स्‍टेट हेड हुआ करता था। यह बात है सन-09 की नौ जुलाई की। मैं और मेरा कैमरामैन प्रवेश रावत पूरे दौरान वहीं जुटा रहा। मौके पर आईबीएन-7 के राज्‍य प्रमुख शलभमणि त्रिपाठी आदि कुछ पत्रकार भी थे। गोलियां चल रही थीं, और हम बचने-बचाने की कोशिश करते हुए लगातार इस हादसे को शूट कर खबर दिल्‍ली भेज रहे थे। लेकिन वीडियो बनाते वक्‍त हम सभी लोग बेहद सतर्क थे। लेकिन मुठभेड़ में शामिल पुलिसवालों की आवाज या उनके हावभाव से तनिक भी अहसास नहीं हो रहा था कि वहां मुठभेड़ जैसा कुछ हो रहा होगा। जाहिर है कि यह पूरी कवायद इकतरफा ही थी।

तर्क : पांच

वीडियो के अंत में अचानक ही मोबाइल का रूख जेल से भागे एक छिपे आतंकी की खोज में एक टीले की ओर मुड़ता है। दृश्‍य में एक पुलिसवाला उस आतंकी के टीले की ओर रायफल ताने हुए है। निशाना लगा रहा है पुलिसवाला। अचानक धांय की आवाज आती है और टीले से एक आदमी उछल कर गिरता है। जाहिर है कि इस पूरे दौरान जो भी खतरा था, उन आतंकियों को ही था, पुलिसवालों को तनिक भी नहीं।

निजी तौर पर मैं भी इन आतंकियों के विरोध में हूं और उनकी करतूतों की भर्त्‍सना-निन्‍दा करता हूं। ठीक उसी तरह मैं इस बात की भी निन्‍दा और भर्त्‍सना करता हूं, कि जिस तरह मध्‍य प्रदेश की पुलिस ने इन लोगों को चुन-चुन कर मारा है। मैं निन्‍दा करता हूं मध्‍यप्रदेश की पुलिस और वहां की राज-सत्‍ता की, जिन्‍होंने इस पूरे प्रकरण को निहायत जघन्‍य ओर बेशर्म अंदाज में पेश किया और अपने अपराध को बेहतर प्रशासनिक तर्क बुना।

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