सिर्फ पांच फीसदी मुसलमान ही जानते हैं इस्लाम का मतलब

बिटिया खबर

: श्रमजीवी ट्रेन हादसे में घायलों को बचाने में गुरैनी के छात्रों की भूमिका बेमिसाल : यह तो देखिये कि रंग पड़ा या डाला गया : खुशी को खुशी और गम को गम की तरह मनाइये : गैर-इस्‍लामी है ईदगाह में शादीघर, गुरैनी मदरसा के नायब नाजिम मौलाना अबू बकर से बातचीत : सरकारी लापरवाही का ठीकरा तबलीगी जमात पर फोड़ा :

कुमार सौवीर

लखनऊ : 12 मई-2002 की रात अभी अंगड़ाई भी नहीं ले पायी थी कि सुबह करीब तीन बजे एक जबर्दस्‍त आवाज के साथ चीख-पुकार शुरू हो गयी। पास की गुरैनी कस्‍बे की आबादी करीब एक किलोमीटर दूर थी। आवाज सुनते ही इस कस्‍बे के मदरसे के लोग हड़बड़ा गये। पता चला कि पास की रेल-वे पर एक ट्रेन हादसा हो गया है। आसपास के ग्रमीणों के साथ ही साथ आनन-फानन गुरैनी मदरसा के सारे लोग अपने शिक्षकों के साथ मौके की ओर दौड़ पड़े। घटनास्‍थल पर पहुंचते ही उनके होश फाख्‍ता हो गये। पता चला कि रेल की जर्जर पटरियों के चलते श्रमजीवी ट्रेन पलट गयी है। राहत का मोर्चा लिया सफेद कुर्ता और टोपी पहने छात्रों की फौज ने। राहत शुरू हो गयी। लाशों और घायलों को निकालना शुरू हो गया। लेकिन दर्जनों घायल और लाशें अभी भी क्षतिग्रस्‍त डिब्‍बों में फंसी हुई थीं। इसी बीच जौनपुर में हड्डी के प्रमुख डॉक्‍टर पीपी दुबे अपनी टीम के साथ मौके पर पहुंच गये। और चंद घंटों में ही 80 से अधिक घायलों को प्राथमिक इलाज के बाद अस्‍पताल भेज दिया गया। इस हादसे में 12 यात्रियों की मौत हुई थी। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि गुरैनी मदरसा के शिक्षक और कर्मचारी ही नहीं, बल्कि करीब 12 सौ छात्रों ने सुबह से लेकर देर रात तक घायलों की सेवा की। अगले कई दिनों तक ऐसी सेवा-सुश्रुषा मदरसे की ओर से जारी रही।
पूर्वांचल में तीन बड़े मदरसे हैं। एक बस्‍ती में, दूसरा आजमगढ़ के अरसिया में और तीसरा है जौनपुर के गुरैनी में। मैं गुरैनी मदरसे को बखूबी जानता हूं। केवल औपचारिक शिक्षा ही नहीं, बल्कि इंसानियत का सबक भी अनिवार्य रूप से पढ़ा और पढ़ाया जाता है। यहां के नायब नाजिम हैं मौलाना अबू बकर। शाहगंज रोड पर बने इस गुरैनी मदरसा में 112 शिक्षक और कुछ दर्जन अन्‍य कर्मचारियों के अलावा करीब बारह सौ छात्र हैं। यानी एक शिक्षक के जिम्‍मे करीब दस छात्र हैं। शिक्षक और छात्र के बीच का यह अनुपात देश के किसी भी क्षेत्र के किसी भी स्‍कूल में नहीं है। पढाई तो प्रायमरी तक होती है हिन्‍दी और अंग्रेजी में, लेकिन उसके बाद अरबी माध्‍यम से। मुफ्ती और आलिम तक की पढ़ाई होती है यहां।
वाराणसी में ही मिल गये लखनऊ हाईकोर्ट की बार एसोसियेशन के पूर्व महासचिव आरडी शाही। वापसी उनके साथ ही होने लगी, लौटते वक्‍त रास्‍ते में गुरैनी मदरसा दिखा, तो मैं सीधे मौलाना अबू बकर से पहुंच गया। बातचीत शुरू हुई मदरसों की मान्‍यता को लेकर मौलाना मदनी के बयान को लेकर। अखबारों में छपा था कि मदनी ने कहा है कि वे सरकारी इमदाद पर थूकते हैं। मौलाना अबू बकर बोले कि वे नहीं जानते कि मौलाना मदनी ने क्‍या कहा, लेकिन एक पढ़ा-लिखा और जिम्‍मेदार शख्‍स हल्‍की बातें क्‍यों करेगा, यह समझना जरूरी है। मैं नहीं समझता कि मौलाना मदनी ने ऐसे शब्‍द बोले होंगे। रही बात मदरसों के मान्‍यता की, तो यह अनिवार्य प्रक्रिया है। हां, सरकार से आर्थिक मदद लेना या नहीं लेना तो मदरसा-प्रबंधन की इच्‍छा पर निर्भर करता है। वैसे यह जरूर है कि केवल उन्‍हीं मदरसों को लेकर विवाद खड़े होते हैं, जो सरकार से आर्थिक हासिल करते हैं। हमारा गुरैनी मदरसा सरकार से कोई भी इमदाद नहीं लेता और यहां की व्‍यवस्‍था समाज की मदद से होती है। मदरसों को लेकर उठने वाली उंगलियां पर मौलाना का कहना है कि हम बच्‍चों को पढ़ा रहे हैं, उन्‍हें बवाली, उपद्रवी और जंगली नहीं बनाते हैं। हम शिक्षा की ज्‍योति जलाते हैं। सोचिये तनिक कि अगर मदरसे न हों, तो यह बच्‍चे कहां जाएंगे और उनकी गतिविधियां क्‍या होंगी, यह तो समाज और सरकार को देखना ही चाहिए।
कोरोना की शुरुआत में तबलीगी जमात और मौलाना साद पर खूब हंगामा हुआ। मौलाना अबू बकर इस पर बहुत दुखी हैं। एक जमात को कोरोना की तोहमत थोप दी गयी, लेकिन हम किससे कहें। जब वकील और फरियादी की कोई सुन ही न रहा हो, और सरकार केवल मनमर्जी पर आमादा हो, तो क्‍या कहा जा सकता है। लेकिन हम निराश नहीं हैं। फिर कोई न कोई आयेगा, फिर कोई लहर आयेगी, फिर इंसाफ होगा। हमेशा यही होता रहा है और यही होता भी रहेगा। इसमें हताश होने की कोई जरूरत नहीं। सब कुछ वक्‍त वक्‍त की बात है और हालातों का असर है।
मौलाना अबू बकर कहते हैं कि इस्‍लाम महान है, इसकी शिक्षा है कि किसी को कष्‍ट न दिया जाए। लेकिन इसको मानता कौन है ? सच बात तो यही है कि खुद को मुसलमान कहलाने वाले लोगों में 95 फीसदी लोग भी इस्‍लाम को न जानते हैं और न उसको समझते हैं। ऐसे में किस बात के मुसलमान ? सारा बवाल ही इसी के चलते है। केवल हिन्‍दू या मुसलमान ही नहीं, सभी को समझना ही होगा कि केवल वही समझदार नहीं है, बल्कि दूसरे लोग भी समझदार हैं। बात-बात पर डीजे बज रहा है। कोई भी यह नहीं देखता कि पड़ोस में कोई खुश है या गमगीन। नहीं देखते हैं लोग कि होली में रंग डाला गया या फिर पड़ गया। दूसरे की खुशी और दूसरों के गम में शामिल होने की कोशिश की जानी चाहिए।
ईदगाहों में शादीघर जैसी गतिविधियों को सिरे से ही खारिज करते हैं अबू बकर। वे कहते हैं कि इजरायल में अब मुसलमान बचे ही कहां, जबकि वहां हमारा मुकद्दस बैतुल-ए-मस्जिद है।

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