13 साल पहले राष्ट्रपति ने दिया था पद्मश्री सम्मान
चौथे और पांचवें दशक की फिल्मों की खनकती हुई आवाज़ की मल्लिका शमशाद बेगम के लब अब हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गये। शमशाद बेगम 94 बरस की थीं। अभी कुछ ही दिन पहले शमशाद बेगम का जन्मदिन मनाया गया था। यह दीगर बात रही कि इस हैप्पी बर्थ डे पर बस चुनिंदा लोग भी पहुंचे। आखिरकार, बीतते वक्त की तहरीर का गवाह बनने की जहमत कौन उठाता है।
लेकिन कभी वह दौर तो था ही शमशाद बेगम का। अपने ज़माने की शोख़ और चुलबुली नायिकाओं की आवाज़ हुआ करती थीं। उन्होंने हिंदी-उर्दू फिल्मों में पांच सौ से ज्यादे गाने गाये, जिनमें से दर्ज़नों गाने आज भी पुराने फ़िल्मी गीत-प्रेमियों की पसंद बने हुए हैं। उनके गाये कुछ सदाबहार गीत हैं – ‘छोड़ बाबुल का घर’, ‘होली आई रे कन्हाई’, ‘गाडी वाले गाडी धीरे हांक रे’ ( मदर इंडिया ), ‘तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा कर’ ( मुग़ल-ए-आज़म ), ‘मेरे पिया गए रंगून’ ( पतंगा ), ‘कभी आर कभी पार’ ( आर पार ), ‘लेके पहला पहला प्यार’, ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ ( सी .आई .डी ), ‘मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का’ ( बाबुल ), ‘बचपन के दिन भुला न देना’ ( दीदार ), ‘दूर कोई गाए’ ( बैजू बावरा ), ‘सैया दिल में आना रे’ ( बहार ), ‘मोहन की मुरलिया बाजे’, ‘धरती को आकाश पुकारे’ ( मेला ), ‘नैना भर आये नीर’ ( हुमायूं ), ‘मेरी नींदों में तुम’ ( नया अंदाज़ ), ‘कजरा मुहब्बत वाला’ ( क़िस्मत ) आदि। फिल्म संगीत में योगदान के लिए भारत सरकार ने 2009 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा।
शमशाद बेगम का जन्म 14 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हुआ था। शमशाद बेगम संगीत की प्रेमी थीं और केएल सहगल बचपन से ही सलोने हीरो हुआ करती थीं। उन्होंने ‘देवदास’ फिल्म 14 बार देखी थी। शमशाद बेगम ने अपने सिंगिंग करियर की शुरुआत 16 दिसंबर, 1947 को पेशावर रेडियो से शुरू किया था। इनकी सम्मोहक आवाज ने महान संगीतकार नौशाद और ओ.पी. नैय्यर का ध्यान अपनी ओर खींचा और इन्होंने फिल्मों में प्लेबैक सिंगर के रूप में इन्हें ब्रेक दिया। इसके बाद तो शमशाद बेगम की सुरीली आवाज ने लोगों को इनका दीवाना बना दिया। 50, 60 और 70 के दशक में ये म्यूज़िक डायरेक्टर्स की पहली पसंद बनी रहीं। शमशाद बेगम ने ऑल इंडिया रेडियो के लिए भी गाया। इन्होंने अपना म्यूज़िकल ग्रुप ‘द क्राउन थिएट्रिकल कंपनी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट’ बनाया और इसके माध्यम से पूरे देश में अनेकों प्रस्तुतियां दीं। इन्होंने कुछ म्यूज़िक कंपनियों के लिए भक्ति गीत भी गाए।
शमशाद बेगम की सुरीली आवाज ने सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब का ध्यान खींचा और उन्होंने इन्हें अपनी शिष्या बना लिया। लाहौर के संगीतकार गुलाम हैदर ने इनकी जादुई आवाज का इस्तेमाल फिल्म ‘खजांची'(1941) और ‘खानदान’ (1942) में किया। 1944 में ये गुलाम हैदर की टीम के साथ मुंबई आ गईं। यहां इन्होंने कई फिल्मों के लिए गाया। इन्होंने पहला वेस्टर्नाइज्ड सॉन्ग ‘मेरी जान…सनडे के सनडे’ गा कर धूम मचा दिया था। ओ.पी.नैयर ने इनकी आवाज की तुलना मंदिर में बजने वाली घंटियों की आवाज से की है। इनकी गायन शैली पूरी तरह मौलिक थी। इन्हें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, गीता दत्त और अमीरबाई कर्नाटकी से जरा भी कम नहीं आंका गया। 2009 में इन्हें प्रेस्टिजियस ओ.पी. नैयर अवार्ड से नवाजा गया।
इनके बारे में कहा जाता है कि ये अपने-आप को खूबसूरत नहीं मानती थीं, इसलिए अपना फोटो खिचवाने से परहेज करती थीं। इनके बहुत कम ही फोटो उपलब्ध हैं। इन्होंने गनपतलाल बट्टो से शादी की थी। उनका निधन 1955 में ही हो गया था। इसके बाद से वह अपने दामाद और बेटी ऊषा रात्रा के साथ मुंबई में रहती हैं।इनके साथ एक कॉन्ट्रोवर्सी भी जुड़ गई। 1998 में यह खबर आई कि इनका निधन हो गया। पर वो दूसरी शमशाद बेगम थीं, उनका भी नाम शमशाद बेगम ही था। वे नसीम बानो की मां, जिनकी बेटी सायरा बानो हिंदी फिल्मों की मशहूर एक्ट्रेस और बॉलीवुड आइकॉन दिलीप कुमार की पत्नी हैं।
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