मालिक हैं अफसर, जनता ग्लैडियटर्स। फिल्‍म है 13 त्‍जामेटी

मेरा कोना

: जैसे किसी चूहे को दबोच कर खेलती है बिल्ली, अफसर बिलकुल उसी तरह : आम आदमी को ककड़ी-सा चबाते हैं अफसर, सुबह शौचालय में छुर्रर्रर्रर्र :

कुमार सौवीर

नई दिल्ली : एक फिल्म है 13 त्जामेटी। आप चाहें तो उसमें टी सायलेंट कर दें या फिर जेड। फिर तमेटी हो जाएगा या फिर जमेटी। कहानी है गेला बबलुआनी और ग्रेग प्रस। निर्देशक गेला ही हैं। हिंसा पर पैसा लुटाने-कमाने के धंधे में संलिप्‍त लोगों पर आधारित कहानी है यह फिल्‍म। हावर्ड फ्रास्‍ट के विश्‍वविख्‍यात उपन्‍यास ग्‍लेडियर्स के हिन्‍दी रूपांतरण आदि-विद्रोही से काफी मिलती-जुलती है यह फिल्‍म का कथानक। सिवाय इसके कि आदि-विद्रोही में मध्‍ययुगीन कथानक है, जबकि 13 त्‍जामेटी (13 tzameti ) में आधुनिक समाज का परिदृश्‍य है। लेकिन… खैर।

13 नम्‍बर का लड़ाकू युवक इस फिल्‍म के ग्‍लेडियर की भूमिका में है। दुखान्‍त कहानी है, जिसमें अवैध कमाई को लूटने के लिए एक विलेन लूट करता है। धोखे में। और आखिरकार हीरो को अपनी जान गंवानी पड़ जाती है। बावजूद इसके कि उसका सारा….खैर, लम्‍बी कहानी  है, दिलचस्‍प है, और बांधे रखी है। दर्शकों को मेरी सलाह यह है कि वे अगर कमजोर दिल के हैं, तो इस फिलम से परहेज करें।

लेकिन यह मेरी पूरी प्रोफेसरी-टाइप प्रवचन का मतलब आपका इस फिल्‍म की कहानी सुनाना नहीं था। मैं तो इस फिल्‍म में शामिल उन सफेदपोश लोगों के चरित्र, उनका हावभाव, उनकी चालढाल, व्‍यवहार, उनके हंसने, मुस्‍कुराने, बोलने, चलने, फिरने, जान-बूझ कर लचक-धंचक कर चलने वाली से आपका परिचय कराना चाहता था, जो आपकी आंख खोल सकती  है।

कहानी में कई ग्‍लैडियर्स हैं जो छत से लटकते एक बिजली के लट्टू के इर्द-गिर्द एक गोला बनाते हैं। फिर एक दूसरे की खोपड़ी पर पिस्‍तौलें तानते हैं। पिस्‍तौलों में केवल एक ही गोली होती है। लट्टू का जलना ही इशारा होता है। वे सभी एक-दूसरे पर फायर करते हैं। और एकसाथ कई-कई लाशें बिखर जाती हैं। बाकी बचे लोग अगले दिन फिर वही खेल शुरू करते हैं, फिर वही लट्टू, फिर वही फायर, फिर वही मौत का मंजर और फिर वही जश्‍न। जिन्‍दा बचे लोगों के लिए नहीं, बल्कि अगले दिन उनकी मौत की प्रतीक्षा के लिए।

इनमें ग्‍लेडियर्स की हालत तो अपना प्राण देने की प्रतियोगिता में हल्‍की-फुल्‍की कमाई करने तक ही सीमित है। लेकिन मौत के इस खेल में दांव  लगाने वालों की तादात बेहिसाब है। और कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे सारे खिलाड़ी अपने-अपने ग्‍लैडियर्स पर मोटी रकम लगाते हैं। बहुत शाइस्‍तगी के साथ। बिना किसी हिचक के। बेहद आत्‍मीय माहौल में।

अब जरा देखिये। निहारिये अपने आसपास कुर्सियों-सिंहासनों पर विराजमान लोगों पर, जिन्‍हें आम आदमी अपनी  बेवकूफी और काइयां लोग तेल लगाने के लिए उन्‍हें विभूति कहते-कहलाते रहते हैं। इनमें से ज्‍यादातर लोग तो ब्‍यूरोक्रेसी में हैं। कानून तो उनके लिए ठीक उसी तरह है, जैसे ककड़ी। जब भी मन किया, चभर-चभर चबा लिया, हल्‍का मसालेदार नमक लगाकर। सुबह एक लीवर उठा कर उसी कानून को कमोड में छुर्रर्रर्र से बहा दिया। बाहर निकले तो फिर फ्रेश। आनन्‍द की रस-बौछार से भीगा मन। रसाबोर। प्रफुल्‍ल। जैसे किसी सद्य-स्‍तनपायी बच्‍चे के चेहरे पर अपनी मां का दूध टपकता है ना, ठीक उसी तरह ऐसे काइयां लोगों के चेहरे पर का भाव टप्‍प-टप्‍प चूता ही रहता है। हमेशा।

ऐसे लोगों को बाकी लोग कीड़ा-मकोड़ा लगते हैं। हां, वे ग्‍लैडियर्स के प्रति बहुत सम्‍मान और अतिशय प्रेम-आत्‍मीयता का प्रदर्शन करना नहीं भूलते। आखिर वही तो ग्‍लैडियर्स ही तो हैं, जो उनके अहंकार को तुष्‍ट करते हैं, अपनी जान देकर, उनकी संतुष्टि देकर। लेकिन इसके साथ ही साथ वे यह भी इशारों में अपनी इच्‍छाएं भी प्रदर्शित करते रहते हैं, कि जाओ, सीना ठोंक कर मेरे आनंद देने के लिए अपना प्राण उत्‍सर्ग करना। इसमें कोई चूक न हो।

आइये, इस फिल्‍म को देखिये। न मिले तो मुझे बताइयेगा। मैं दे दूंगा। वैसे अगर आप यूपी की ब्‍यूरोक्रेसी में ऐसे-वैसे ज्‍यादातर लोगों से मिल चुके हैं, तो फिर कोई दिक्‍कत नहीं। मौज लो, लेते रहो।

प्रत्‍यक्षम् किम् प्रमाणम्

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