हम्पी–डम्पी सेट ऑन अ वाल। जी हां, संजय विचार मंच

मेरा कोना

हलाल होना बकरे का और मौज लूटना दढि़यल सम्पादक का

पूर्वांचल, प्रदेश, पार्टी व देश का विकास-मार्ग था दारू-मुर्गा
दारू-उल-शफा में मंच का दफ्तर बन गया दारू-सफा

कुमार सौवीर

विधायक-निवास यानी दारूलशफा के भू-तल वाले फ्लैट की मौजूदगी से इन लोगों का बड़ा सहारा दे रखा था। वैसे भी इस मकान के चलते सुखद और जीवन के युगांतरकारी घटनाक्रम से डम्पी के चिंटुओं-पिंटुओं की तो लॉटरी ही खुल चुकी थी। दिमाग तो उर्वर था ही इन लोगों के पास। बस फिर क्या था, कुछ ही दिनों में इन लोगों ने दारूलशफा को प्रदेश के दूर-दराज से आने वाले अनजान कर्म-कामी लोगों को हलाल करने वाले कत्लगाह में तब्दील कर दिया। हालांकि संजय विचार मंच और उसके पदाधिकारियों की शौर्यगाथा खासी ख्याति पा चुकी थी, और इस मेनका समेत उनके मंच को भी पैदल कर दिया गया था, हम्फी-डम्फी तक पैदल हो चुके थे। लेकिन इसके बावजूद अपना काम करवाने वाले चार-छह लोग दारूलशफा स्थित मंच में अपना त्राण पाने पहुंच ही जाते थे। और कहने की जरूरत नहीं कि जैसे ही कोई शख्स मंच के दफ्तर में घुसता, सारे के सारे पदाधिकारी उसे हलाल करने के लिए अपनी-अपनी छुरियां सान पर चढ़ा देते। हर शख्स को नाटकीयता में महारत थी और वे तत्काल भूमिका में आ जाते थे।

ऐसे में एक दिन आजमगढ़ का एक युवक मंच के दरवाजे पर पहुंचा। दारोगा सिंह सामने थे।

बोले:- बोलो।

युवक:- माननीय विनोद त्रिपाठी जी से मिलना है।

दारोगा सिंह:- मिल लो। किसी ने मना तो किया नहीं है। काम क्या है।

तब तक अंदर से त्रिपाठी की आवाज गूंजी। लगा, किसी को हड़का रहे हैं। बुरी तरह। कुछ ही लम्हों बाद भीमकाय त्रिपाठी अंदर से आया और उसके पीछे-पीछे एक अन्य‍ युवक भी, जिसे उन्होंने डांट-फटकार कर दफा किया। फिर टेलीफोन पर दसियों कॉल लगायी। एक-एक कॉल पर 15-20 नम्बर डायल किये। यह जताने के लिए जिससे बात करे रहे हैं, वह खासी दूरी पर है। मसलन, दिल्ली या मुम्बई वगैरह-वगैरह। वैसे जितनी दूरी, उतने नम्बर डायल करने की स्टाइल त्रिपाठी की उर्वर-दिमाग की मूल उपज नहीं थी। लखनऊ विश्वविद्यालय का एक बकवादी कांग्रेसी छात्रनेता सत्येन्द्र पाण्डेय यही काम करता था, जब उसे दूर-दराज के छात्रों-लौंडों पर रूतबा झाड़ना पड़ता था। दीगर बात है कि सत्येन्द्र आज तक कभी किसी चुनाव में नहीं जीत पाया था। लेकिन सत्येन्द्र  की इस स्टाइल को त्रिपाठी ने चांप लिया था। जबकि दारोगा सिंह तो चूतिया ही था इस मामले में। पक्का चूतिया। आजमगढ़ से आया नवागंतुक युवक सहम गया। डरते-डरते उसने चुपचाप त्रिपाठी का चरण-स्पर्श कर खुद को धन्य करने की कोशिश की। इस बीच पानी के कई ग्लास पेश किये गये। कई बार चाय-पकौड़ी और बंद-मक्खन के लिए गर्राबी आवाज लगायी गयी। दीगर बात रही कि चाय-पकौड़ी-बंद-मक्खन को न तो आना था और न ही वह पेश किया गया। मंच के स्थाई बाशिंदों को सख्त हिदायत पहले ही दे चुकी थी कि जब भी कोई मुर्गा मंच में पहुंचे, उसके सामने चुनही-तम्बाकू का सेवन नहीं करेगा। बहुत तलब लगे तो बाहर निकल कर हथेली-रगड़ तम्बाकू इस्तेमाल कर सकता है। अन्यथा अगर पैसा हो तो सीधे पान खा ले। दीगर बात थी कि दीवारों पर पिच्च-पिच्च की पच्चीकारी सजी हुई थी। खैर,

इसके बाद पेशी हुई आजमगढ़ी युवक की। युवक ने बताया कि उसका काम अमुक अफसर के पास फंसा हुआ है और यह अफसर अमुक मंत्री के विभाग का है। लेकिन दिक्कत यह है कि न उस अमुक अफसर से कोई जुगाड़ है और न ही उस अमुक मंत्री से। अब यह काम अगर हो जाए तो उसका फंसा हुआ करीब डेढ़ लाख रूपया उसे वापस मिल जाएगा।

काम बहुत महत्वपूर्ण था। इसका समर्थन वहां मौजूद 4-5 लोगों ने भी किया। हालांकि यह लोग उस आजमगढ़ी युवक को नहीं पहचानते थे, लेकिन चूंकि मामला पूर्वांचल से जुड़ा था, इसलिए सवाल ज्यादा नहीं, सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया था जिसका समाधान देश-विदेश की किसी भी समस्या से ज्यादा जरूरी था। आसानी से समझा जा सकता है कि बिना पूर्वांचल को हासिल किये, कांग्रेस को जमीनी जीत कैसे मिल सकती है। और केवल संजय विचार मंच इसी काम के लिए तो बना है।

कुल मिला कर दृश्य यह बन गया कि यह युवक की समस्या उसकी निजी नहीं, बल्कि पूरी देश की बन गयी। कमरे में मौजूद हर शख्स इस युवक की समस्या बरास्‍ते पूर्वांचल, कांग्रेस, देश और मानवता पर जोर-जोर से पैरवी करने लगा। दारोगा सिंह और त्रिपाठी ने इस अति गंभीर प्रश्न पर मिल रही दलीलों को समझने की लगातार कोशिश की। मसलन, यह मामला बहुत पेंचीदा है। खासकर देश की मौजूदा राजनीतिक हालातों के मद्देनजर तो और भी कठिन है। अगर हां, मंच की मुखिया मेनका गांधी जी चूंकि इंदिरा गांधी जी बहू हैं, इसलिए वहां से काम हो सकता है। अलग बात है कि सास-बहू में अब ज्यादा पटरी नहीं खाती है, लेकिन जब मेनका जी किसी सवाल पर जोर देंगी तो इंदिरा जी और राजीव जी उनकी बात को तो टाल नहीं ही सकेंगे। है कि नहीं? आखिरकार अब यह पूर्वांचल-पार्टी-देश का सवाल बन चुका था, कोई इंदिरा-मेनका की निजी मूंछ का नहीं।

यह तो पक्का ही है। है कि नहीं,,, ऐसे ही समस्या और उसके समाधान लगातार त्रिपाठी और दारोगा के सामने प्रस्तुत किये जा रहे थे। और यह दोनों लोगों की पेशानी पर दिक्कतों की लकीरें गहरी हो रही थीं और कभी समाधानों की बाढ़़ में ऐसी लकीरें एकदम से कम भी होती जा रही थीं।

आखिरकार तय हुआ कि इस सवाल का समाधान करने के लिए कोई न कोई दिल्ली जाएगा ही जरूर। और अगले दो-चार दिन में ही। और मुमकिन हुआ तो आज शाम या बहुत ज्यादा हुआ तो कल। क्योंकि अब ज्यादा देरी करना उचित नहीं है। जनता पार्टी और दमकिपा और दीगर जातिवादी पार्टिंयां तो जुटी ही रहती हैं कि मौका मिले, और चांप दें पूर्वांचल, पार्टी और देश को।

त्रिपाठी ने इन विरोधी पार्टियों की माता-बहन पर एक मोटा परचा काटते हुए भर्त्सना की शैली में खंखारा और एक कर्रा थूक का बंडल बाहर सड़क की ओर उछाल दिया। वह तो यह युवक सतर्क था, सो बच गया। हालांकि हल्की छीटें कान के आसपास महसूस हुईं, जिसे उसने सावधानी से अपने उल्टे हाथ से पोंछ लिया। लेकिन अब तक उसके मन-मस्तिष्क में त्रिपाठी-दारोगा के प्रति असीमित सम्मान बढ़ गया।

लेकिन दिल्ली-प्रस्थान की योजना के इस फैसले से ही मामला झंझट में फंस गया। सवाल उठा कि इस मुर्गे के साथ और उसके खर्चे पर कौन मजा लूटने दिल्ली जाएगा। चूंकि यह विवाद इन-हाउस और क्लोज-डोर ही होना चाहिए। इसलिए इशारे में ही झगड़े को मुल्तवी करने के लिए त्रिपाठी ने उससे पूछा कि वह दारू-शारू का सेवन करता है या नहीं। और यह कहते ही त्रिपाठी ने अपने हाथ अपनी जेब की ओर बढ़ाया, लेकिन अब तक भावावेश के उबाल से सराबोर आजमगढ़ी युवक ने लपक कर उनके हाथ को रोका और यह सेवा खुद करने की जिद की। यह दीगर बात है कि इस क्रम में इस युवक की आंखों में आंसू आ गये। उसे यकीन हो गया कि हो न हो, त्रिपाठी जी और दारोगा जी ही उसके असली तारण-कार हैं, जो सीधे देवलोक से केवल उसके लिए ही अवतार किये हैं। त्रिपाठी ने उसकी आंखों में अश्रुओं को भांप लिया और कुर्सी पर बैठे-बैठे पूरी शालीनता और आत्मीयता के साथ उसे गले लगा लिया। हां, हां, युवक की जिद भी मान ली गयी।

इसके बाद ओल्ड मॉंक की पूरी पांच बोतलें मंगायी गयीं। कई दर्जन अंडों की आहुति इस श्राद्ध में हुई। उद्यापन के तौर पर कई प्लेट बिरयानी, टांग वाले मुर्गे, चंद किलो मछली और सलाद के कई बर्तन खाली गये। आखिर कई पत्रकार भी इस महाभोज में आमंत्रित किये गये थे।

अरे हां, उस दारू-मुर्ग-भोज में भी वह भी मौजूद थे। जी हां, वह सम्पादक भी, जो दिल्ली-फ्राम-फैजाबादी-वाया-लखनऊ है।

हां, उस रात “सरकाय ल्यौ खटिया जाड़े लगै” वाला हादसा होने से बच गया क्योंकि वह दुबला-पतला आजमगढ़ी चेचकमुंही युवक उस सम्पादक को रास नहीं आया। और इस तरह आजमगढ़-पूर्वांचल की आन-बान-शान पर धब्बा नहीं लग सका।

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कुमार सौवीर पत्रकार और लेखक हैं।

आप कुमार सौवीर से kumarsauvir@gmail.com या kumarsauvir@yahoo.com अथवा 09415302520 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

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