लोगों की नजर में परले दर्जे का काइयां, मेरे लिए देवता था गुलाब केशरी

सैड सांग

: मुझे याद है जब अपने दोनों पैर कुर्सी रख कर बैठे गुलाब को डांटा, फिर वह यही तो खेल बन गया हमारे बीच : अखबारों को बढ़ाना-पिछड़वाना केवल व्यवसाय ही नहीं, गुलाब का शगल भी था : व्‍यवसाय करना ठीक है, लेकिन उसमें आत्‍मीयता रखने में क्‍या हर्ज :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मैंने अपने दफ्तर में पहला दिन शुरू किया था। चूंकि मैं ब्यूरो प्रमुख के पद का ओहदा लेकर पहुंचा था, इसलिए सबसे पहले ही अपने आफिस में पहुंचना चाहता था। कुछ और खास बात नहीं, केवल और केवल टशन। देखा तो जाए कि कौन-कौन कब-कब पहुंचता है। एक के बाद एक होते-होते पूरा दफ्तर आधे घंटे के भीतर खचाखच भर गया। मुलाकात का दौर शुरू हुआ कि अचानक एक शख्स किसी मरियल बेल-लता की तरह झूमते हुए पहुंचा। दाहिनी आंख को मिचियाता हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर सिर के ऊंचा करते हुए उसने बंदगी की, और फिर सीधे बिना किसी पूछताछ के एक कुर्सी में धंस गया।

यह 13 अगस्त-2003 की सुबह थी। जोधपुर के पाली-मारवाड़ से रवाना होकर मैं जौनपुर पहुंचा था। यह दैनिक भास्कर से दैनिक हिन्दस्तान की यात्रा थी। पुरानी कहावत के हिसाब से जीतता वही है, जो पहली बिल्ली मार दे। वैसे भी फर्स्टर इंप्रेशन इस लास्ट इंप्रेशन का नारा तो प्रबंधकीय नारों में सर्वोच्च माना जाता है। मैं भी एक नये नारे के साथ जौनपुर से लाया था कि:- हर गलती कीमत मांगती है। पहुंचते ही मैंने इस नारे का प्रिंट-आउट निकलवाया और उसे दफ्तर की दीवारों पर चिपकवा दिया था। जो भी दफ्तर आता, वह मेरे इस नारे को बेहद गौर से पढ़ता था। मेरी कनखी नजर उनकी नजर पर चुपके से निगहबानी में जुटी थी। मैं समझना चाहता था कि मेरे बारे में उनके चेहरे पर कैसी रंगत आ-जा रही है।

बहरहाल, शुरूआत में तो सबसे पहले स्टाफ से ही बातचीत होती रही। अचानक मैंने उस शख्स को एक उचटती नजर से देखा। वह कुर्सी पर धंसा हुआ था। इसमें कोई खास बात तो थी नहीं। दफ्तर में जो भी आ रहा है, उसका यह अधिकार है कि वह दफ्तर की कुर्सी पर बैठ सकता है। लेकिन अचानक मैंने पाया कि कुर्सी पर धंसा शख्स अपने दोनों पैर कुर्सी पर जमाये बैठा था।

यह ना-काबिलेबर्दाश्त था। मैंने एक उंगली हिला कर इशारा किया, तो वह हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। मैंने चेहरे पर सख्ती लाते हुए साफ ऐलान किया कि यह कुर्सी बैठने के लिए है, अराजकतापूर्ण व्यवहार के लिए नहीं। कुर्सी पर पैर रखना दफ्तर के औपचारिक रिश्तों में गलत है। तमीज से बैठिये, यह आफिस है। आपके घर का ड्राइंग रूम नहीं।

यह गुलाब केशरी था। उस वक्त तक जौनपुर में हॉकर्स का बेताज बादशाह। उसके एक इशारे पर किसी भी अखबार की हजारों प्रतियों का बढ़ जाना या घट जाना बेहद मामूली बात थी। अखबार की बिक्री का सत्यानाश करा सकने की ताकत रखता था वह गुलाब केशरी। लोग कहते थे कि मडि़याहूं में तीन ही काने हैं, और उसमें ज्यादा खतरनाक है गुलाब केशरी। जिसका काटा हुआ पानी तक नहीं मांगता, लहर तक नहीं आती।

पत्र-वितरक के साथ किसी ब्यूरोचीफ के रिश्ते बेहद नाजुक होते हैं। गुलाब ने उसे हमेशा उसका मान रखा। मैं कभी नहीं समझ पाया कि बाकी लोगों के साथ गुलाब कैसे आक्रामक हो जाता है। सिवाय इसके कि गुलाब का एक बड़ा धंधा था मिट्टी के तेल, कोटेदार, पेट्रोल पम्प और जाहिर है कि जिला आपूर्ति अधिकारी कार्यालय में फंसे उसके कामधाम। वह धंधा था ही ऐसा कि उसमें धंद-फंद बहुत जरूरी पक्ष था। दो बार इसी चक्कर में वह जेल की यात्रा तक कर आया था।

मैंने उसके बीच एक मोटी लकीर खींच रखी थी। कह दिया कि मैं उसकी हर खबर को छापूंगा, लेकिन वही खबर जिसमें दम होगा, विरोधी का भी पर्याप्त पक्ष होगा। गुलाब ने इस लकीर का हमेशा सम्मान किया। सिवाय इसके कि वह शायद मुझे चिढ़ाने के लिए दोनों पैर रख कर ही कुर्सी पर बैठता था, और प्रतीक्षा करता था कि मैं उसे डांट कर ठीक से बैठने का आदेश दूंगा। कुछ ही समय बाद मैं उसके इस भाव को समझ गया और उसके बाद से हम दोनों ही लोग इस खेल का आनंद लेने लगे। वह बैठा, मैंने उसे उतारा। बैठा, उतरा।

गुलाब ने अपने व्यैवसाय में कभी अमर उजाला को दुखी किया तो कभी हिन्दुलस्तालन को। कभी मधुकर तिवारी को, तो कभी पाठक पुस्तक भंडार वाले पाठक को। लेकिन हैरत की बात है कि मेरी निजी बातचीत में भी गुलाब ने कभी भी किसी के बारे में कोई भी उल्टा‍-पुल्टा नहीं बोला। गुलाब को पता था कि पाठक से मेरी बातचीत होती रहती है, लेकिन गुलाब ने इस बारे में कोई शिकायत नहीं की। मैं हर बार यही कहता रहा कि तुमने कई लोगों की जिन्दगी परेशान कर दिया, अब मेरी जिन्दगी मत हराम करो। ऐसे हर व्यंग्य पर गुलाब हमेशा कुर्सी पर उठ कर सीधे मेरे चरणों को चांप कर जमीन पर बैठ जाता था। बिना शर्त। जब भी मैं कुछ कठोर बात कहता, गुलाब दोनों हाथ जोड़कर बोलता था:-सर जी, आप तो हमार देवता हौ। आप चाहो तो हमार गटिया काटि लौ।

उसका विरोध खूब किया जेडी सिंह ने। सांड़ के साथ लेकर जेडी ने गुलाब, पारस और सरदार वगैरह के खिलाफ माउथ-मीडिया का दामन थामा, लेकिन जल्दी ही गुलाब की आपस में दोस्ती हो गयी। अभी जेडी का एक मैसेज देखा, लगा कि वह बाकायदा बिलख रहा होगा।

बहरहाल, उसकी अभद्रताओं के बाद से ही जैसे-जैसे वह मुझसे आत्मीय होता गया, मैंने उसका एक उप-नाम भी रख दिया। कांटा। गुलाब उर्फ कांटा। यकीन मानिये, एक बार भी गुलाब ने मेरे दिये इस उपनाम पर कोई भी ऐतराज नहीं किया। मेरे के प्रति उसने हमेशा बेहद सम्मानजनक व्यवहार रखा। हां, आप यह कह सकते हैं कि मैंने एक बार उसके प्रति अपनी सीमा का शायद उल्लंघन किया। वह यह कि एक बार जब वह जेल में बंद था, मैं उससे मिलने जेल पहुंचा और वहां अधीक्षक से मिल कर अनुरोध किया कि उसे कोई अनावश्यक दंड न दिया जाए।

मेरा यह व्यवहार गुलाब पर किसी चमत्कार की तरह पड़ा। अव्वल तो उसे यकीन ही नहीं हुआ कि कोई ब्यूरो प्रमुख किसी पत्र-वितरक से मिलने जेल जाएगा। और सिर्फ गुलाब ही क्यों, जिन भी लोगों ने यह खबर सुनी, उन्होंने मेरी निन्दा ही की। उसका कहना था कि मैंने अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर दिया। शायद वे सच ही थे। लेकिन मेरे पास अपने तर्क थे। जब सम्पादक और जीएम जैसे लोग उसकी हर हां में हां मिला सकते हैं, तो इसका मतलब यह कि वह हमारे परिवार का ही एक अंग है। अनिवार्य अंग। आप हॉकर की छोटी-छोटी खबर तो खूब कई-कई कॉलम में छाप सकते हैं, बड़ी पार्टियां देंगे। तो फिर उसकी मदद करने में क्या हर्ज। जिससे हमारे व्यावसायिक रिश्ते हैं, तो उससे अगर हम आत्मीय रिश्ते भी बना लें तो उसमें क्या हर्ज।

मैंने ऐसा ही किया और नतीजा यह कि गुलाब हमेशा के लिए मेरे दिल में बस गया। वह कैंसर से जूझ रहा था। कुछ महीनों से उसे जवाब मिल चुका था। अभी दो महीना पहले ही उसका फोन आया था। बोला था:- सर, अब बहुत लम्बी पारी खेल चुका हूं। आइये, आपको देखने की ख्वाहिश है। मैं बीमार हूं, इसीलिए आपसे निवेदन कर रहा हूं।

लेकिन मैं उसकी इस ख्वाहिश को पूरा नहीं कर पाया। हो सका, तो उसकी तेरहवीं पर पहुंचूंगा।

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