3 साल में मां, 16 में पिता, बुढापा में पति और बेटा खाया
: मैट्रिक पास किशोरी को मिली थी दसवीं कक्षा को पढाने की नौकरी : प्रो शर्मा से विवाह में सारे गांधीवादी थे घराती, फरारी में हुई मौत :
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वाराणसी : तीन साल की उम्र में मां की मृत्यु हो गयी और सोलह साल की आयु में पिता का साया सिर से उठ गया। इतना ही नहीं, भरी जवानी में पति की मौत तब हुई जब वे गिरफ्तारी से बचने के लिए फरारी में भटक रहे थे और बुढ़ापे में उनके बड़े बेटे की मौत हो गयी। किसी भी शख्स के हौसले को पूरी तरह तोड़-निचोड़ देने के लिए इतना काफी होता है। लेकिन लीला ने अपनी खुदी को काफी बुलंद कर लिया और इस तरह तदबीर से पहले खुदा ने खुद ही पूछ लिया कि:- लीला ! आखिर तेरी रजा क्या है ? आखिरकार लीला जसरा और उनकी बहनों के बारे में यह नारा पूरे कालेज में यूं ही मशहूर नहीं था कि जसरा सिस्टर्स मस्ट कम फर्स्ट। जिन्दगी में वे हमेशा फर्स्ट ही रहीं। उनकी मोहब्बत तो जब हुई, बनारस से ही हुई। पठानकोट छोड़कर काशी में बसी इस महिला ने आखिर दम तक वाराणसी नहीं छोड़ा।
यह कहानी है लीला जसरा की, जो जब मैट्रिक पास कर चुकी थीं, कि अचानक अनाथ हो गयीं। परिवार ने तय किया कि अब वापस गुजरांवाला अथवा पठानकोट स्थित अपने पैत्रिक शहर लौट चला जाए। लेकिन वक्त ने पलटा खा लिया। बनारस सेंट्रल हिंदू कालेज की प्रधान अध्यापिका थीं गोदावरी बाई भड़कमकर। लीला के शहर छोड़ने की खबर पाकर गोदावरी बाई भड़कमकर दौड़ी-दौड़ी आयीं। खूब समझाया और मनाया भी। तर्क दिये और तसल्ली भी। और आखिरकार लीला को उसी स्कूल में शिक्षिका का ओहदा दिला कर उनकी जिन्दगी को एक नायाब दिशा मुहैया करा दी। लंका के पास बने अपने मकान के दूसरे मंजिल पर लीला जसरा बीते वक्ति की घटनाओं को याद कर अतीत में ही खो गयीं। कुछ देर तो केवल उनका चेहरा ही बोलता रहा, आवाज नहीं। गोदावरी बाई जी वाली घटना पर चर्चा शुरू हुई तो बोली:- ऐसा न होता तो शायद लीला जसरा आज पाकिस्तान के ही किसी शहर में गुमनाम सी जिन्दगी बिता रही होतीं।
लीला जसरा झूठ नहीं बोल रही थीं। हकीकत यही है कि अगर गोदावरी बाई ने उनकी जिन्दगी को यह नया मोड़ नहीं मुहैया कराया तो वाराणसी एक महान बेटी का पालनहार होने के सम्मान से वंचित रह जाता। खैर, आगे चल कर वे सेंट्रल हिंदू कालेज की प्रिंसिपल बनीं और अपने पति तथा बहनों को स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ने का हौसला दिया। गांधीजी और कस्तूरबा की यह दुलारी मुंहबोली बेटी आज महेंद्रवी हास्टल के पास के इस उजाड़नुमा हवेली में रहती रहीं जो उन्हें राजा डूंगरपुर की रानी ने उपहार में दी थी। अपने जीवन में हासिल लक्ष्यों के प्रति पूर्ण संतोष का भाव पूरी दृढता के साथ उनके चेहरे पर हर समय दमकता रहता रहा।
ज्ञानचंद जसरा का नाम तब व्यवसाय की दुनिया में पूरी सम्मान के साथ लिया जाता था। अब पाकिस्तान में समा चुके पंजाब के गुजरांवाला शहर के रहने वाले जसरा की पहचान सेफ ( अलमारी ) निर्माण के क्षेत्र में खास तौर पर थी। उनके दो मकान पठानकोट में भी थे। अचानक उन्हें व्यवसाय की दृष्टि से एक बार वाराणसी आना पड़ा। इस शहर ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना ही बना लिया और कुछ ही बरस बाद उन्होंने यहां के राजाबाजार क्षेत्र में पंजाब आयरन सेफ व कम्पनी के नाम से एक फैक्ट्री खोल ली। इसी बीच 2 जून 1917 में उनकी चौथे नम्बर की बेटी लीला पठानकोट में पैदा हुई। ज्ञानचंद इसके कुछ ही महीनों बाद पूरा परिवार वाराणसी ही ले आये। लेकिन लीला के तीन साल की होते ही उनकी मां का स्वर्गवास हो गया।
बचपन से ही गांधी की खादी पहने वाली लीला ने अपनी बहनों के साथ सेंट्रल हिंदू स्कूल में पढना शुरू कर दिया। पढाई में श्रेष्ठता तो इस परिवार के हर सदस्य ने दिखायी। हर बहन अपनी कक्षा में टॉप करने लगी। लीला तो लाजवाब ही थीं, लगातार रिकार्ड ही तोड़ती रहीं। दसवां पास करते ही एक दिन हरिद्वार गये पिता की वहीं मृत्यु हो गयी। अब तो इस परिवार पर दुखों का पहाड़ ही टूट गया। लेकिन लीला को नौकरी मिल गयी। दसवीं पास लीला को दसवीं कक्षा की छात्राओं को पढाने का जिम्मा मिला। साथ ही वीमेंस कालेज से एमए भी कर लिया।
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