तुम्‍हें गली में मंदिर-मस्जिद चाहिए, अस्‍पताल नहीं। तो जाओ, मरो

दोलत्ती

: हर गांव में आधा दर्जन से ज्‍यादा मंदिर, मस्जिद, दरगाह मिलेगा :अस्‍पतालों के दर्शन दुर्लभ, मिला भी तो बंगाली डॉक्‍टर या खतना स्‍पेशलिस्‍ट जर्राह :
कुमार सौवीर
लखनऊ : अब तो मान लीजिए कि हम-सब मूलतः बेशर्म हैं। चाहे वे अल्लाह-हो-अकबर हों, या फिर जै-श्रीराम। और जो बेशर्म नहीं हैं, वे या तो कायर-डरपोक हैं, या फिर ऐसे बेशर्म-कमीनों के चरणों से ऊपर अपनी निगाह उठाने की हिम्मत ही नहीं दिखा सकते। बम्बई वाले संजय तिवारी तो ऐसे लोगों पर तमाचे मार रहे हैं। गुस्सा जायज भी है। वजह यह कि हमारे देश के हर एक गांव में आपको कम से कम आधा दर्जन मंदिर या थान-स्थान जरूर मिल जाएंगे, और उतनी ही मस्जिदें, मज़ार और दरगाहें भी जहां दिन-रात हो-हल्ला, शोरगुल और हंगामा होता रहता है। जीना हराम कर देते है ऐसे हरामखोर। ऐतराज करो तो कोई धर्म का नाम लेकर गुस्साता है या मिल्लत-दीन का हवाला देकर मरने-मारने पर आमादा हो जाता है।
लेकिन सौ-दो सौ गांवों में एक भी हॉस्पिटल नही मिलेगा आपको। सरकारी अस्पताल तो हरगिज नहीं। और प्राइवेट अस्पताल भी अगर मिला भी गया तो वह या तो बंगाली डॉक्टर मिलेगा, ओझा होगा या फिर जंग-लगा उस्तरा थामे जर्राह मिलेगा, जो नन्हें बच्चों का खतना कर उन्हें मुकम्मिल मुसलमान बनाने का जुबानी सर्टिफिकेट बांटा रहता है।
यह आलोचना कम, हकीकत-बयानी है। हमारी चिंता का कारण आम आदमी को इलाज के लिए अस्पताल बनाना कभी भी रहा ही नहीं। कभी भी नहीं। हमें तो हिंदू-मुस्लिम का खून बहाने से न तो फुर्सत मिलती है, और न ही इसके अलावा कोई दूसरा काम-धाम हमें आता है।

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