आखिर काशी में ही क्‍यों जमे रहना चाहते हैं पुलिस और प्रशासनिक अफसर

मेरा कोना

: किसी मजबूत खूंटी की तरह पूरी जिन्‍दगी बनारस में ही गाड़ चुके हैं अधिकांश अफसर : नेताओं के वरदहस्‍त ने पूरे पूर्वांचल में प्रशासन की हालत पतली कर दी : हर नेता का अपना साम्राज्‍य है और हर अफसर का विशाल निवेश क्षेत्र :

कुमार सौवीर

वाराणसी : हजरत-ए-दाग जहां बैठ गये, बैठ गये। लाख जूते पड़े, उठ न सके। लेट गये।

जी हां, यह शेर है और यह खासा लोकप्रिय भी है। अब यह तो पता नहीं कि यह शेर किसने और किसके लिए लिखा था, लेकिन यूपी की ब्‍यूरोक्रेसी और टोपीक्रेसी के शामिल उन लोगों पर तो यह बाकायदा खूब फबता-जमता है, जो संकल्‍प ले चुके होते कि चाहे कुछ भी जाए, मगर बनारस नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि ऐसे अफसरों की नाल बनारस में ही गड़ी हुई है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सच बात तो यही है कि पूर्वांचल के अधिकांश अफसरों की बपौती बन चुका है वाराणसी। कोई न कोई अफसर किसी न किसी नेता का खूंटा थाम कर केवल बनारस में ही जमा रहना चाहता है। मानो, काशी न हुआ इन अफसरों की खाला का घर। जो एक बार आ गया, बाहर जाने को तैयार नहीं। अगर कोई गलती से बाहर कर दिया गया तो चंद दिनों बाद ही वह फिर न किसी बहाने से महा मोक्ष-धाम पर आ धमकता है। और जब तक उनकी काशी-वापसी नहीं हो जाती, वे अपने नेता-मंत्री की गोद छोड़ने को तैयार नहीं होते। जाहिर है कि इस अफसर के खर्चे से मंत्री-नेता लोग अपने इस चहेते अफसर की मनचाही पोस्टिंग के लिए लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में पैरवी करना शुरू कर देते हैं।

दरअसल, सूत्रों के अनुसार बनारस समेत पूरे पूर्वांचल में अधिकांश अफसर तो सरकार की नौकरी नहीं करते, बल्कि उनके माई-बाप तो या तो वहां के प्रभावशाली नेता-मंत्री होते हैं, या फिर बड़े माफिया अथवा कोई बडे पैसे वाले व्‍यवसायी। यही लोग अपनी सेवा के लिए सरकारी सेवा हासिल कर चुके अपने पालित-श्‍वानों की पहचान करते हैं, और फिर हमेशा-हमेशा के लिए वे अफसर उनकी सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर देते हैं। ऐसे में जन-प्रशासन का कोई भी पैराग्राफ उनके लिए अर्थवान नहीं बन पाता। उनकी सरकारी नौकरी अपने ऐसे मालिकों की सेवा के लिए ही समर्पित हो जाता है। सरकारी नौकरी तो केवल एक बहाना हो जाता है, जिसका इस्‍तेमाल वे और उसके मालिक लोग उन अफसरों के कानूनी अधिकारों को ठीक उसी तरह इस्‍तेमाल करते हैं, जैसे कोई सिपाही डंडा या दारोगा अपनी सरकारी रिवाल्‍वर के तरह लटकाता या प्रयोग करता है।

अब चूंकि अपनी मनचाही पोस्टिंग के लिए इन अफसरों ने पहाड़ जैसी मेहनत की होती है, ऐसे में सामान्‍य प्रशासन और कानून-व्‍यवस्‍था उनकी प्राथमिकता में कभी जुड़ ही नहीं पता है। चार दिन पहले जय गुरूदेव सम्‍प्रदाय के समागम में हुई भगदड़ में 18 महिलाओं समेत 25 लोगों की कुचल कर हुई मौत के असली जिम्‍मेदार तो यही अफसर ही रहे हैं, वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि बरसों तक किसी किलनी-परजीवी कीट की तरह बनारस को चूसते रहे इन अफसरों के दिमाग में इतनी भी तमीज तक नहीं उग पायी कि उस समागम में इतने लोग भी आ सकते हैं। केवल झूठे-पाखंडी समागम-आयोजक महंथ ने प्रशासन को बता दिया कि उस कार्यक्रम में केवल तीन हजार लोग आयेंगे, और किसी दुधमुंहे बच्‍चे की तरह अफसरों ने शहद-चुसनी अपने मुंह में चुभलाना शुरू कर दिया। और नतीजा, यह भीषण नर-संहार हो गया।

सरकारी नौकरी हासिल कर अफसरी करने में जुटे लोगों का बदनुमा चेहरा आप अगर महसूस करना चाहते हैं तो बनारस पधारिये। शिव-नगरी काशी में पूरा प्रशासन ही मलंग दिखेगा। महादेव शंकर की मलंगई की रजाई ओढ़ कर सरकारी कर्मचारी-अफसर बाकायदा प्रशासनिक पाप-कुकर्म करते हैं, कि पूरा शहर ही भूतों का डेरा बन चुका है। जो भी सरकारी एक बार बनारस में अपनी राजनीतिक सम्‍बन्‍धों के बल पर आ जाता है, वह सरकारी कुर्सी पर तो हमेशा जमा है, लेकिन कभी भी लौट कर लोक-प्रशासन नहीं कर पाता। बनारस और पूर्वांचल के पुलिस और प्रशासनिक भूत-चाण्‍डालों के बारे में मेरी बिटिया डॉट कॉम एक लेख-श्रंखला शुरू कर रही है। आप में इस बारे में कोई जिज्ञासा हो तो निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:- सरकारी भूत-पिशाच

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