शेखर त्रिपाठी की सांस टूटती रही, पर जागरण-मालिक नहीं पहुंचे

मेरा कोना

: एक बरस में ही एक लाख तक पहुंच चुका था जागरण लखनऊ का सर्कुलेशन : महेंद्र मोहन ने शेखर की ओर झांका तक नहीं। तब भी नहीं, जब श्मशान घाट पर अग्नि देवता की पत्‍नी स्‍वाहा द्वारा शेखर की हवि स्‍वीकार कर रही थी : वादा पूरा करना तो दूर, अपने सहज मानवीय, व्‍यावसायिक, अथवा आत्‍मीय रिश्‍तों से जुड़े किसी भी एक दायित्व का निर्वहन नहीं किया जागरण ने :

कुमार सौवीर

लखनऊ : ( गतांक से आगे) शशांक शेखर त्रिपाठी के इस आश्वासन पर महेंद्र मोहन इतना गदगद हो गए थे कि उन्होंने शेखर त्रिपाठी की पीठ ठोंकी और कहा कि:- शाबाश शेखर, तुम है हौसला। कर सकते हो तुम यह सब। तुम्‍हारे साहस की मैं प्रशंसा करता हूं। और वायदा करता हूं कि जिस दिन भी हमारे लखनऊ संस्‍करण की प्रतियों की संख्या 17 हजार से बढ़ कर 25 हजार तक पहुंच जाएगी, तुम सभी लोगों को एक जबरदस्त पार्टी दूंगा। प्रॉमिस।

कहने को तो हम सब और दीगर लोग इस संख्या की बढ़ोतरी पर अपनी-अपनी राय और प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं कि आखिर 17000 से यह संख्या 40000 तक इतनी जल्‍दी कैसे पहुंची। क्‍योंकि इस सफलता के दूसरे कारण भी थे। मसलन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि कई प्रमुख पहलू-कारक बन गए इस दिशा में। या फिर इस दैनिक जागरण की टीम ने इसके लिए बेतहाशा मेहनत कर डाली थी। कुछ भी हो सकता है, जिस पर फिर कभी चर्चा की जा सकती है, लेकिन सच यही है कि तब तक दैनिक जागरण के लखनऊ में प्रकाशित होने वाली प्रतियों की संख्या 40 हजार तक पहुंच गई थी। और इससे भी बड़ी बात यह कि एक बरस में ही यह अखबार एक लाख से ज्‍यादा छपने लगा था।

हिन्‍दी पत्रकारिता-जगत में एक अप्रतिम और विशालकाय ग्रह थे शशांक शेखर त्रिपाठी। उनसे जुड़ी खबरों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

शशांक शेखर त्रिपाठी

लेकिन दर्दनाक बात तो यह है कि शेखर त्रिपाठी ने महेंद्र मोहन गुप्‍ता से किया गया अपना दावा तो पूरा किया, लेकिन दैनिक जागरण के मालिक महेंद्र मोहन ने अपना वादा पूरा करना तो दूर, अपने सहज मानवीय, व्‍यावसायिक, अथवा आत्‍मीय रिश्‍तों से जुड़े किसी भी एक दायित्व का निर्वहन नहीं किया। ऐसे में एक कर्मचारी अपने संस्‍थान के मालिकों के प्रति कैसे जी-जान लड़ने की साहस जुटा सकता है, यह सवाल अब बेहद उलझाऊ होता जा रहा है।

शेखर त्रिपाठी द्वारा किये गये उस वायदे को आज पूरा 31 साल पूरा हो चुका है। आखिरी दौर में वे खुद में ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी बेहद कमजोर और अकेले हो चुके थे। इतना ही नहीं, उनके संस्‍थान दैनिक जागरण तक ने उनसे अपना पल्‍ला झाड़ लिया था, जबकि इसमें साजिश अखबार के प्रबंधन की थी, लेकिन पूरा ठीकरा शेखर ने अपने ही सिर-माथे पर फोड़वा लिया था। शेखर त्रिपाठी की मौत हो चुकी है।

पत्रकारिता से जुड़ी खबरों को देखने के लिए निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

पत्रकार पत्रकारिता

बावजूद इसके कि अपने संस्थान के मालिकों के प्रति किये गये अपने हर वादे पर शेखर त्रिपाठी हमेशा खरे उतरे थे। बल्कि उनके कोशिशों का ही है कि लखनऊ संस्करण की प्रतियां लाखों तक पहुंच गई लेकिन महेंद्र मोहन ने अपना काम निकलने के बाद अपने वायदे की तरफ झांका तक नहीं। खास तौर पर तब जबकि शेखर बिलकुल अकेले हो चुके थे। लेकिन जागरण के मालिक मोहन-बंधुओं ने तब भी शेखर की ओर नहीं झांका, जब शेखर त्रिपाठी बीमार हो चुके थे। तब भी नहीं, जब शेखर त्रिपाठी गाजियाबाद के यशोदा हॉस्पिटल में बुरी तरह बीमार होकर भर्ती थे। तब भी नहीं, जब शेखर के इलाज का बिल बीस लाख के उचकता जा रहा था। तब भी नहीं, जब शेखर त्रिपाठी ने दम तोड़ दिया। और तो और, तब भी नहीं जब शेखर की लाश दिल्ली के निगम बोध श्मशान घाट पर अग्नि देवता की पत्‍नी स्‍वाहा द्वारा धूधू कर स्‍वीकार की जा रही थी।

जागरण की यादों को सहेटे हुए इस लेख-श्रंखला के अगले अंकों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

जागरण-पुराण

सच बात तो यही है कि दैनिक जागरण के मालिकों को अपने नौकरों पत्रकारों और प्रबंधकों का इस्तेमाल करना खूब पता होता है मगर उनकी हालत बिगड़ते ही यही मोहन परिवार उन लोगों को दूध में पड़ी मक्खी की तरह झटक कर बाहर फेंक देता है। शेखर त्रिपाठी के अंतिम दौर में ही नहीं, बल्कि उनकी चिता के दौरान और उसके बाद भी दैनिक जागरण के मालिकों का एक भी सदस्य शेखर त्रिपाठी या उनके परिजनों के पास फटका तक नहीं।

हां, शेखर चौपाटी को देखने सीजीएम सत्येंद्र श्रीवास्तव अस्पताल गये, निगम बोध घाट पर पहुंचे। इतना ही नहीं, एनसीआर के स्‍थानीय सम्‍पादक विष्णु त्रिपाठी भी निगम बोध घाट पर  गए। इसके बावजूद विष्‍णु त्रिपाठी के भाई अस्‍पताल में गंभीर रूप से बीमार थे।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *