हर शख्‍स को अपने सपनों की कीमत चुकानी होती है, स्‍त्री को कुछ ज्‍यादा ही

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: स्‍त्री-सशक्‍तीकरण की पहली आवाज उठाने वाले को अपनी बलि तो देनी ही होगी : आर्थिक उदारीकरण का दौर लोगों के सुख-सुविधाओं की क्रूरतम वसूली करता है : पूर्वोत्‍तर भारत की लड़कियों के बारे में बाकी देश में शर्मनाक घटिया सोच फैली है :

रंजीत पाण्‍डेय-रश्मि उपाध्‍याय

लखनऊ : लगभग दो हफ्ते पहले सुजीत सरकार की फिल्म पिंक आई और खूब नाम कमाया। मैंने भी फिल्म देखा और देखने के बाद सोच रहा था कि फिल्म के बारे में कुछ चर्चा की जाये। कल कुमार सौवीर जी से मुलाक़ात हुई और फिल्म पर चर्चा भी हुई। उन्होंने मुझसे कहा की एक समीक्षा ही लिख दो। तो मेरा जो ऑबजरबेसन था वो ये कि फिल्म मे ये दिखाने की कोशिश की गयी है की महानगरो में रह रही उन लड़कियों को किन किन मुसीबतों से सामना करना पड़ रहा जो किसी कस्बो या छोटे शहरों से महानगर मे आने के बाद करना पड़ता है। बात यही नही बल्कि ये भी है कि किस कदर आर्थिक उदारीकरण की गिरफ़्त में हम फस जाते हैं । और उसके द्वारा दी गयी सुख सुविधाओं  की कीमत को कैसे वसूल किया जाता है।

फिर एक लड़की य महिला जब अपने घर से अलग आत्मनिर्भर होकर रहना चाहती है तो लोगों का उसके प्रति क्या नज़रिया होता है और उसके बारे मे क्या क्या मनगढ़ंत बाते लोग करते हैं लड़कियों को किस तरह उनकी निगाहों से दो चार करना पड़ता है।

फिल्म में एक लड़की मेघालय की होती है तो उसे बस नार्थ ईस्ट की कह देना ही लोग उचित समझते हैं क्योंकि हमारे देश के लोगों के मन में नार्थ ईस्ट की लड़कियों के प्रति जो भाव है वो जगज़ाहिर है उसे बताने की जरूरत नही समझी जाती है ।

फिल्म मे लड़कियों को भी स्वतन्त्र ज़िन्दगी जीने के तौर तरीकों पर प्रकाश डाला गया है और अंत मे यही की ये समाज अपने दिए हुए की कीमत वसूल करेगा चाहे किसी भी रूप में हो कोई भी हो स्त्री या पुरुष आपको पे करना ही होगा चाहे पहले करें या बाद में। मेरे हिसाब से फिल्म एक अच्छा मेसेज है खासकर उन लड़कियों के लिए जो संघर्ष कर रही है अपने अस्तित्व के लिए।

रश्मि उपाध्‍याय के अनुसार:- नो, नहीं। ये वो शब्द है , जिसका सिर्फ और सिर्फ एक ही मतलब होता है ” नो ” ,,, और ” नो ” का अर्थ ही है , सिरे से इनकार ,,, आज लख़नऊ में पीवीआर में अमिताभ बच्चन की मूवी ” पिंक ”  देखी ,,,। जिसमें नो शब्द का इस्तेमाल बखूबी किया गया है ।

एक औरत का किसी भी प्रकार से ” नो ” या नहीं कह देना ही अपने आप में एक संपूर्ण “शब्द” है , जिसका स्वयं में ही यही अर्थ अर्थ है कि अगर औरत किसी भी प्रकार से किसी भी व्यक्ति से  शारीरिक संबंधों से इंकार करती है , तो वो चाहे वेश्या हो , सेक्स वर्कर हो , पेड वर्कर हो , अगर उसकी किसी भी प्रकार से सहमति नहीं है , या फिर वो अनिच्छा ज़ाहिर करती है , तो यदि उससे उसकी असहमति के बावजूद उससे किसी भी प्रकार का अभद्र व्यवहार किया जाता है , तो वो व्यभिचार की श्रेणी में गिना जायेगा , फिर चाहे वो स्त्री उसकी अपनी पत्नी ही क्यूँ ना हो ,,,

इसी तथ्य को उभारती हुई ये फिल्म वाकई में मन के तारों को झिंझोड़ देती है , और सोचने को विवश करती है कि औरत एक वस्तु या सामान नहीं , बल्कि एक जीती जागती इंसान है , और किसी भी प्रकार से उसकी सहमति के बगैर उससे की गयी अभद्रता व्यभिचार की श्रेणी में आएगा , और वो कानून की नज़र में दोषी है ,,,

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