मुर्दों को नंगी नजर आती हैं मजारों पर पहुंचतीं यह औरतें, यह बोले मौलवी साहब

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: मर्दाना कौम ने मजहब को अपने हक में बुना, पर अब हिलने लगी है पितृसत्ता की बुनियाद… : सैकड़ों पुरानी किताबों को छोड़ो, देखा कि औरत कितना आगे बढ़ती जा रही है : शिगनापुर मंदिर हो या फिर हजरत अली की दरगाह, औरतों को कमतर साबित करने की साजिशें हर जगह : टूटने लगे बड़े नामधारी मठाधीशों के गुमान :

नाइश हसन

लखनऊ : सिमोन ने एक बार कहा था औरत पैदा नही होती, बनाई जाती है…। औरत को पहले ये समाज गढता है और उसके बाद उसके लिए अपने मुताबिक कायदे क़ानून भी गढता है, और उस कायदे कानून में जरा सी हेरफेर पितृसत्ता की बर्दाश्त से बाहर हो जाती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, हालिया ही एक ऐसा वाकया पेश आया जब औरतों को मुम्बई स्थित हाजी अली की दरगाह के मुख्य भाग में प्रवेश करने से वहां की प्रबन्ध कमेटी ने रोक दिया। वजह ! औरतों को नापाक बताया गया, शरीयत के हुक्म का हवाला दिया गया। जबकि पहले औरते वहा जाती रही है। वो औरतें न्यायालय चली गई।

दूसरा वाकया पेश आया जब शबरीमाला और शनी शिगनापुर मन्दिर में प्रवेश के लिए औरतों को रोका गया और इसका कारण बताया औरतों की माहवारी, जैसे कि अचानक माहवारी आने लगी औरतों को और समाज बौखला गया। इस पर भी एक जोरदार आन्दोलन छिडा जिसकी आवाज देश सहित दुनिया के तमाम हिस्सों में गूंजी। उस गूंज का जवाब देने पितृसत्तात्मक ताकते पूरे दमख़म के साथ आगे आ गई। उनके जवाब हैरान करने वाले थे।

जवाबों की एक बानगी। मौलबी साहब -औरत को औरत की तरह रहना चाहिए उसे मर्द बनने की कोशिश नही करनी चाहिए, औरत मजारों पर मुर्दो को नंगी नज़र आती है, अल्लाह की लानत उस पर बरसती है। और दूसरी ओर मन्दिरों में एक ऐसी मशीन लाने की बात हो रही है जिससे पता चल सके कि औरत को माहवारी तो नही आ रही है ! यदि माहवारी है तो बिलकुल भी प्रवेश वर्जित है और यदि नही है तो भी गर्भगृह में महिलाओं को जाने की इजाज़त पण्डित जी नही दे सकते। अपनी बात का जवाब वो शास्त्रों, पुराणों और मनुस्मृति में ढूंढते है, लेकिन मुख्य वजह जिससे कनारा काटते है वो है उनके भीतर जमी पितृसत्ता की जड़े। एक मर्दाना ज़ोम जो औरत को हमेशा कमतर समझता आया है और उसी के इर्द गिर्द धर्म मज़हब को स्थापित कर अपने बचाव के तर्क ढूंढता है। चंकि धर्म का डर दुनिया में हर डर से ऊपर है जिसका भय आसानी से दिखाकर नियंन्त्रण स्थापित किया जा सकता है।

ऐसी मिसाले केवल दो मन्दिरो या दरगाहों की ही नही है, ऐसी मिसाले हम अपने रोजमर्रा के जीवन में भी बडी आसानी से देख सकते है जहां पितृसत्ता के नशे में डूबे लोग आधी आबादी की जिन्दगी को खत्म करने पर तुले है। अभी पिछले दिनों लखनऊ में एक वाकया पेश आया। एक उम्रदराज़़ आदमी ने जो महिला अधिकारों की झण्डाबरदारी भी करते है कामकाजी औरतों को एक भद्दी गाली दी उनका कहना था कि धरने-प्रदर्शनों में, मीटिंग सेमिनारों में आने वाली औरतें अपनी यौन-इच्छा पूरी करने के लिए आती है और लोगों से सम्पर्क कायम करती है।

लखनऊ की प्रगतिशील महिलाओं ने उन्हें निशाने पर ले लिया। इस बात से मुल्लाओं और पंडितों की तरह बहुतेरे तथाकथित सेक्युलरिस्ट, सोशलिस्ट, फेमिनिस्ट, कम्युनिस्ट कहे जाने वाले मर्दो की आंखों में खून उतर आया। उस महिला को झूठा साबित करते हुए उस अधेड मर्द को अपनी पूरी सहानुभूति देते रहे और सवाल उठाने वाली महिलाओं को कोसते रहे। पितृसत्ता के रखवालों के लिए ये सहन कर पाना नाक़ाबिले बर्दाश्त था। बरसों से प्रगतिशील औरतों के प्रति मन में भरता हुआ रोष यकबयक बाहर निकल आया और पितृसत्ता की हिलती जडों को उन्होने पुनः जमाने का हर सम्भव प्रयास किया। इसके अलावा पिछले दिनो इसी गुमान में डूबे जस्टिस एके गंगुली, तरूण तेजपाल, आसाराम, नारायण साई,  विपुल कुमार श्रीवास्तव, टेरी के प्रमुख आरके पचैरी जिनका नाम सुर्खियों में रहा जिनके गुमान को तोडते हुए महिलाओं को बेबाक होकर सामने आते देखा गया।

लखनऊ की ही तीन महिलाओं को मौलानाओं ने उनकी जानकारी के बिना अपनी संस्था के जरिए तलाकनामा भिजवा दिया, तीनों महिलाओं ने संगठित होकर मौलानाओं के खिलाफ आन्दोलन खडा कर दिया और उनके कारनामों को कोर्ट में चुनौती देते हुए जीत हासिल की। इस घटना से मौलाना तैश में तो आए , लेकिन एक बार फिर पितृसत्ता की जडें कमजोर पड़ने लगीं। ये सवाल हमेशा जिन्दा रहेगा कि ये धर्म आधारित कानून बनाया किसने ? क्या कहीं इतिहास में कोई महिला नजर आई इन कानूनों को बनाने वाली ? जवाब नही में होगा, धर्म चाहे कोई भी हो। यह ध्यान देने की बात है कि सभी धर्मो की महिलाए परिवार के भीतर पिस रही है उनके साथ नाइंसाफी बरती जा रही है। इस लिए परिवार के भीतर और बाहर महिला अधिकारों के प्रश्न को धार्मिक चिन्ताओं के दायरे से बाहर खीचकर एक मानवाधिकार के प्रश्न के रूप में स्थापित करना बेहद जरूरी है। औरतें खुद को समाज के हवाले नही करना चाहती।

औरत बगावत पर है। नाइंसाफी के खिलाफ बगावत लाज़मी भी है। ऐसे सभी रस्मो रिवाज परम्पराएं जो औरत को इंसान मानने से ही इनकार करती है और भेदभाव पर टिकी है उसे औरतें ज़मीदोज़ कर डालना चाहती है। वो सवाल कर रही है इस समाज से, इस व्यवस्था से। वो कह रही है कि पित्रसत्ता ने उसे रसोई और बिस्तर के गणित से परे कभी समझने की कोशिश ही नही की इस लिए अब वो खुद सब कुछ बदल डालना चाहती है। वो कह उठी है सीना पिरोना है धन्धा पुराना, हमे दो ये दुनिया गर रफू है कराना। अब बिगडी हुई व्यवस्था को रफू करने की जिम्मेदारी उठाने की तैयारी है जो एक खूबसूरत दुनिया कर निर्माण करेगी।

हाजी अली, शनी शिगनापुर के फैसले के साथ ही तमाम जिला अदालतों के हालिया फैसले औरत के लिए राहत भरे फैसले है। औरत के लिए हदबन्दियां खत्म करने की दिशा में एक जरूरी कदम है।

जिस प्रदेश से हाजी अली दरगाह और शनी शिगनापुर मन्दिर का मुद्दा उठा वो प्रदेश सावित्रीबाई फुले का प्रदेश है। ताराबाई शिन्दे का प्रदेश है, बाबासाहब अम्बेडकर का प्रदेश है। असगरअली इंजीनियर का प्रदेश है। जिसमें औरतों की तालीम, नारीवादी सोच और गैरबराबरी के खिलाफ सबसे पहले आवाज उठी थी। उन्ही महान स्त्रियों और महापुरूषों की परम्पराओं को आगे बढाते हुए आज की स्त्री को ये समझना भी बेहद जरूरी है कि जैसे अम्बेडकर ने मन्दिर में दलितों के प्रवेश का आन्दोलन तो चलाया था लेकिन वो दलितों द्वारा की जाने वाली मूर्तिपूजा के पक्षधर कभी नही थे, उन्हे लगता था कि ये मूर्तिपूजा दलितों को कुछ नही दिला सकती। उसी नक्शेकदम पर चलते हुए आज की महिलाओं को दरगाह और मन्दिर में प्रवेश की इस जीत के बहुत बडे मायने नही तलाशने चाहिए। मन्दिरों दरगाहों में प्रवेश स्त्री मुक्ति या स्त्री की सम्पूर्ण आज़ादी में बड़ा मील का पत्थर साबित नही हो सकता। उसे अपनी तरक्की के लिए शिक्षित होना होगा, नौकरियों मे अपनी जगह बनानी होगी, देश की पार्लियामेन्ट में अपनी जगह बनानी होगी, धर्म कर्मकाण्ड को भी चुनौती देनी होगी जिसने सदियों से उसकी तरक्की का रास्ता रोक रखा है। साथ ही उसे मानसिक रूप से साहसी भी होना होगा। सच्चे अर्थ में औरत की तरक्की उसी में है वरना हम धार्मिक किताबों में हजारों साल पुरानी रिवायतों के हवाले ढूंढते रह जाऐंगे और दुनिया हमें पीछे छोड कर बहुत आगे निकल जाएगी।

बेशक औरत ने पित्रसत्ता की बुनियाद तो हिला ही दी है….।

रौंद सकते हो तुम फूल सारे चमन के

पर बहारों का आना नही रोक सकते……।

लखनऊ की रहने वाली नाइश हसन महिलाओं और खासकर मुस्लिम महिलाओं के हक-ओ-हुकूक को लेकर जूझ रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *