: दुनिया में शायद इकलौता चार महान सभ्यताओं का संगम केवल कलकत्ता में हैं : अंग्रेजों ने तो राज किया, मौज लिया और निकल गये : लेकिन यूपी-बिहारियों की धारा को उनकी मेहनत का वाजिब मुआवजा नहीं मिल पाया बंगाल में :
कुमार सौवीर
कलकत्ता : पहले तो संगम मैं इलाहाबाद को ही मानता था। काशी के बारे में सुना जरूर था, लेकिन न वरूणा जैसा नाला को मैं नदी मान पाया और न ही अब लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का दर्शन। हां, उत्तराखण्ड में कई जगहों पर प्रयाग देखा, फिर लदाख में लेह से 45 किलोमीटर दूर दो नदियों का संगम देखा। लखनऊ में गंग-ओ-जमुनी सभ्यता के संगम के बारे में कल्पनाएं के बारे में ऐसा कोई भी संगम मेरे दिल-दिमाग में अब तक नहीं स्थापित हो पायीं। दरअसल यह गंगोजमुनी संगम सा शब्द मुझे हमेशा चिढ़ाता ही रहा। जहां दोनों ही धाराएं एक-दूसरे के अस्तित्व को खारिज करने पर आमादा हों, वहां संगम कहां होता है। हां, इसे गंग-ओ-जमुनी संघर्ष जरूर समझा-पुकारा जा सकता है। क्यों, आपका क्या ख्याल है दोस्तों। लेकिन कलकत्ता ने मेरा नजरिया ही बदल डाला। मुझे तो यहां तीन विशालतम धाराओं का संगम स्पष्ट दिख गया। कोई 70 साल पहले यहां तीन नहीं, बल्कि चार महानतम धाराओं का संगम हुआ करता था। लेकिन आज तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इन बची तीनों धाराओं का संगम जैसा माहौल दुनिया में कहीं भी नहीं होगा। न भूतो, न भविष्यते।
आज जो भी बंगाल आपको दिख रहा है, वह पहले ऐसा न था। बार-बार पड़ते दुर्भिक्षु का भारी असर बंगाल पर खूब पड़ा। भुखमरी से जूझते बंगालियों को इस समस्या का समाधान नहीं दिख रहा था। और केवल बंगाल ही क्यों, पूरा देश ही बेहाल था तब।
इसी बीच अंग्रेज कलकत्ता पहुंचे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कलकत्ते में अपना कारोबार शुरू किया। जैसे एक नया जीवन शुरू देखने की सम्भावाएं दिखनी लगीं। खासकर बंगालियों में। उन्हें लगा ही होगा कि वे अब राजाश्रयी होकर अपना जीवन और बेहतर बना सकेंगे। स्वाभाविक ही रहा होगा कि इसमें बंगालियों ने अंग्रेजों के आने का स्वागत ही किया होगा। बंकिम चंद्र जैसे महानतम लेखकों द्वारा आनन्द मठ जैसी अमर गाथाएं लिखने का माहौल तो बंगाल में उसके काफी बाद उपजने लगा था। खैर, कलकत्ता में अंग्रेज आये, और वे बड़े बैनर लेकर कारोबार करने आये थे।
यह खबर सबसे तो धन-भ्रमरों ने सूंघ ही ले होगी। जाहिर है कि धन-लोभी लोगों की नजर कलकत्ता पर पड़ी। सबसे पहले तो सूखे-रेगिस्तानी राजस्थान से किसी प्रेमी-मिलन के आतुर मारवाडि़यों के धन के भौंरों ने कलकत्ते में अपने लिए सम्भावनाएं खोजना शुरू किया। मारवाडि़यों का जीवन और धर्म ही धन कमाना होता है, ईमानदारी के साथ। खैर, बस फिर क्या था। देखते ही देखते यह मारवाड़ी अपना घर-बार छोड़ कर पैसा कमाने बंगाल में छा गये। पहले जहां केवल चिंतन व विमर्श ही हुआ करता था, वहां अब भारी-भरकम मशीनों की धड़ा-धड़ी और धमाचौकड़ी मचने लगी। धकाधक उत्पादन शुरू हो गया।
उधर यूपी का पूर्वांचल और पूरा बिहार, आज का झारखंड पहले से ही भूख से तड़प रहा था। अविभाज्य बिहार और यूपी का पूर्वांचल समेत आसपास के इलाके में अशांति का माहौल था। सन-52 में लोकसभा में यूपी के गाजीपुर से सांसद चुने गये विश्वनाथ सिंह गहमरी जब भरी संसद में फूट-फूट कर रो पड़े थे कि पूर्वांचल के गरीब लोग गोबर से अनाज चुन कर अपना पेट भरते हैं। ऐसे में बहुत आसानी से सोचा जा सकता है कि आज से दो-तीन सौ साल पहले बंगाल, बिहार और यूपी के पूर्वांचल क्षेत्र की हालत क्या रही होगी।
इस क्षेत्र की बदहाली और पेट की आग से झुलसते इस इलाकों के दयनीय लोगों को बंगालियों की जमीन में खिलने वाले राजस्थानी फूलों को आकर्षित कर लिया। कहने की जरूरत नहीं कि यह पूरा पूर्वांचल का आदमी बेहद परिश्रमी, संयमी और त्यागी भी था। उसे बंगाल में यह जैसे ही सम्भावना खोजने बंगाल निकल गया। डेरा डाला कलकत्ता में। बंगाल को भले ही उनकी जरूरत पड़ी रही हो, लेकिन मारवाडि़यों को मानव-श्रम की सख्त जरूरत थी। मजदूरों के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़क सकता था ओद्योगिक विकास में। बंगाली तो अपनी खुद की थाली उठाने तक में परहेज करते थे, मजदूरी कैसे करते। ऐसे में मारवाडि़यों को मजदूरों की जरूरत पड़ी, और उन्होंने उन्होंने हाथों-हाथ उन्हें लपक लिया।
कलकत्ता ही नहीं, पूरा बंगाल भी आबाद हो गया, खुशहाल हो गया, समृद्ध हो गया। विमल चंद और शरत चंद जैसे लेखकों में इस समृद्धि का खासा वर्णन दर्ज है।
यह यह प्रयास श्रंखलाबद्ध लेख के तौर पर है, जिसे मैं वामिक जौनपुरी साहब मरहूम और बंगाल के महानतम लेखकों, साहित्यकारों के साथ ही साथ भूख से जूझ रही अवाम को समर्पित करना चाहता हूं। इस रिपोर्ताज की अगली कडि़यों को खोलने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:- भूका है बंगाल रे साथी