: न रसीले फलों को पकाने वाली लू का पता है, और न ही रसीले बादलों का : बेहूदा विकास के नाम पर पेड़ों का सर्वनाश कर दिया, अब क्या बचा घण्टा : किसी भी एक्सप्रेस वे पर अब लाशों की गिनती होती है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मानसून का इन्तजार करते-करते कोई एक पखवाड़ा बीतने को है। न तो रसीले बड़े फलों को पकाने वाली लू का पता है, और न ही रसीले बादलों का।
मैं पर्यावरण-विज्ञानी नहीं हूं, लेकिन नब्ज जरूर पहचानता हूं कि नाड़ी क्यों अराजक होती जा रही है।
पिछले ढाई दशकों में तुमने बेहूदा विकास के नाम पर पेड़ों का सर्वनाश कर दिया। मार डाला प्राकृतिक जल-स्रोतों को। जिन तालाबों के कींचड़ से मकानों की दीवारें तैयार की जाती थीं, उन्हें तुमने पाट दिया। जिस कुंए ने लाखों बरसों तक शीतल-जल दिया, तुमने उसे खत्म कर दिया। जबकि जब तुम्हें उनकी जरूरत थी, तब तुम्हें उन्हें पूजा करते थे। अब उनकी गर्दन पर छुरी लगा चुके हो। हर मौसम में तुम्हें फल देने वाले पेड़ों को तुमने ईंट-भट्टों में फूंक डाला।
सच यही है कि तुमने कत्ल कर दिया जल-जमीन और आसमान को स्वस्थ रखने वाले पर्यावरण का।
तुमने सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर लाखों-लाख पेड़ों की गर्दन पर कुल्हाड़े चला दिया। गौर से देखो, स्वर्णिम चतुर्भुज नाम की देश की चौकोर सड़क पर
क्या एक भी पेड़ है। यमुना एक्सप्रेस वे तो कत्लगाह बन चुका है रोड-एक्सीडेंट को लेकर। वजह यह कि वहां पेड़ नहीं हैं, सिर्फ है तो तनाव और बेहूदा स्पीड। जो मार देती है हमारे-तुम्हारी संततियों को। कोई जरूरत नहीं थी आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे की, मगर तुमने बना डाला। केवल अपने खानदान और अपनी निजी सुविधा के लिए। आज जरा गौर से उस सड़क पर निकलो। एक दूब तक नहीं है वहां। हां, हर आधा-एक किलोमीटर पर कुत्तों की लाशें जरूर मिल जाती हैं। पिछले दिनों मैंने इस पूरी सड़क को पौने पांच घंटे में नाप तो दिया, लेकिन करीब नौ सौ कुत्तों की लाशों से गुजर कर ही।
ऐसे में इंसान की क्या हालत होगी अगले चंद बरसों में।
अब तो मेरी और तुम्हारी पीढ़ी अब खात्मे पर है, इसलिए कम से कम इस वक्त तो प्रायश्चित कर लो। प्रायश्चित करो, पश्चाताप नहीं। पश्चाताप तो कायर और अकर्मण्य का:पुरूष करते हैं। हम तो सकर्मक नृवंश से हैं, जिन पर पूरी कायनात को सम्भालने का पुनीत जिम्मा है।
तुम ने तो अपनी जिन्दगी का मजा ले लिया, क्योंकि तुम्हारे पास अनाप-शनाप पैसा आ गया था। लेकिन अब तुम्हारे बच्चे क्या करेंगे। जिस जमीन की खरीद तुमने हराम की कमाई से खरीदी थी, उसकी कीमत आज औंधे मुंह गिर चुकी है। ऐसे में तुम्हारे बच्चों को क्या मिलेगा। जिस पर्यावरण को तुमने अपनी लौंड़ी-वेश्या की तरह ऐश किया है, वह अब तुम्हारी करतूतों से आजिज आकर अब काली-रणचंडी बन कर तुम्हारी संततियों से बदला लेने पर निकल पड़ी है।
अब तुम क्या करोगे