: भूख-प्यास से तड़पते प्राणी को मौत देना हमारी इंसानियत पर कलंक, असफलता और पाखण्ड है : यह पुलिस की क्रूर-निर्मम कार्यशैली की प्रतिबिम्ब है, जिसकी शुरूआत भले ही ऐसे जानवरों से हो, अंत आम निरीह-निर्दोष आदमी तक होता है : गोली मार देना तो आपकी असफलता का प्रतीक है, फर्जी पुलिस-एनकांउटर की तरह :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आबादी में तेंदुआ का आना इंसान पर करारा तमाचा है।
सहनशीलता के मामले में जंगली जानवरों का वाकई कोई सानी नहीं होती। जानवरों की आबादी में जब इंसान हस्तक्षेप करता है, तो भी जानवर उसे बर्दाश्त कर लेते हैं। लेकिन तब मुश्किल तब होती है, जब जंगल में होने वाले जानवरों के भोजन पर इंसान झपटता है। ऐसे में जानवर भूख मिटाने के लिए जंगल से बाहर निकलने पर मजबूर हो जाते हैं। इसके बावजूद ऐसे जानवरों का निशाना इंसान नहीं होता, वे तो कुत्ते, बकरी, बछड़ों की फिराक में होते हैं। आप इतिहास टटोलिये तो, कि कब जंगली जानवर ने इंसान पर हमला किया। जानवर तब ही इंसान पर हमला करता है, जब इंसान खुद ही इन जानवरों पर हमलावर हो जाते हैं।
ताजा प्रमाण है लखनऊ। जहां गोसाईंगज इलाके में एक भूखा तेंदुआ अपनी भूख मिटाने और अपनी जान बचाने के भयावह संघर्ष से दो-चार हो रहा है। आपको बता दें कि यह कोई अनोखा किस्सा नहीं है लखनऊ का। अभी एक महीना पहले भी एक तेंदुआ लखनऊ में आ गया था। हालांकि करीब दो महीनों पहले से ही उसकी पदचाप माल, काकोरी, इटौंजा, कुर्सी आदि सुनायी पड़ रही थी। इतना ही नहीं, आईआईएम के पीछे के आसपास नयी विकसित हो रहीं बड़ी कालोनियों में भी वह पहुंच गया था। लेकिन हैरत की बात है कि वह इस पूरे दौरान केवल अपने भोजन तक ही सीमित रहा। इंसान पर हमला करना तो दूर, उसने तो इंसान को डराने के लिए एक बार भी दहाड़ नहीं मारी।
अपनी इसी छटपटाते पेट की भूख शांत मिटाने के लिए यह तेंदुआ अमौसी के आसपास के इलाके तक पहुंच गया। तो वन विभाग ने उसे दबोचने के लिए हर कोशिश करनी शुरू कर दी। इसमें सबसे बड़ा दर्दनाक तरीका था इस पूरे इलाके के जल-स्रोतों को बंद कर देना। आप कल्पना कीजिए कि कोई भूखा प्राणी बिलबिला रहा हो, और उसको राहत दिलाने के बजाय हम उस बेचारे को पानी तक न दें। तुर्रा यह कि उसके सामने प्राण तक के खतरे पग-पग में बिछा दिये गये हों, तो आपको कैसा लगेगा।
तेंदुआ एक ओर तो भूख से बिलबिला रहा था, और बिना पानी के छटपटा रहा था। इसी बीच एक दारोगा जी ने निकाली अपनी पिस्तौल और। दाग दिया उस निरीह पर गालियां। एक ही क्षण में उसका प्राणान्त हो गया। इसके पहले भी एक तेंदुआ ठाकुरगंज के पास मूसाबाग के इलाके में पहुंच गया था। हालांकि यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि यह वही तेंदुआ था जो अमौसी में मारा गया या फिर दूसरा।
हां, तेंदुआ को मारने वालों की हिमायत करने वालों की यह बात सही है कि तेंदुआ जंगल छोड़ कर आबादी में क्यों घुसा और वहां शहरी जानवरों पर कहर क्यों बरपा रहा था। लेकिन इस बात का जवाब कोई नहीं दे रहा है कि तेंदुआ, शेर, बाघ जैसे जंगली जानवरों के लिए जंगल में जब प्रचुर मात्रा में भोजन योग्य शिकार होने चाहिए, तो उसने सैकड़ों मील दूर लखनऊ जैसे महानगरों पर क्यों हाथ-पांव फैलाये। आप को बता दें कि शेर या बाघ जैसी बड़ी बिल्लियां की प्रवृत्ति जंगल के केंद्र-स्थल में आवास खोजने की होती है, जबकि जंगलों के बाहरी इलाकों में तेंदुआ, चीता आदि अपना ठीहा खोजते हैं।
फिर सवाल तो इंसानों से ही है कि सन-84 में एक बबर शेर बहराइच, लखीमपुर, श्रावस्ती, पीलीभीत जैसे घने जंगलों को छोड़ कर क्यों इंदिरानगर और क्यों महीनों तक घूमता रहा। और आखिरकार सरकारी शिकारियों ने उसे गोली मार कर हमेशा के लिए सुला दिया। आज भी उस शेर की खाल में भूसा भर कर कुकरैल के म्यूजियम में उसे प्रदर्शन की सामग्री के तौर पर पेश किया जाता है। पिछले पांच बरसों के बीच में एक बाघ जंगलों को सैकड़ों मील की दूरी नाप कर लखनऊ के ककोरी, माल आदि बस्तियों में मटरगश्ती करता रहा था।
इन तर्कों की बिना पर सवाल तो हर शख्स से होना ही चाहिए कि क्या ऐसे में इन जानवरों को इतनी निर्दयता के साथ पेश होना चाहिए। जंगल के प्राणी भी हमारे आश्रित होते हैं। इसलिए हम ने उनके रहवास को सुरक्षित रखा है। लेकिन इसके बावजूद जिस तरह घुसपैठ जंगलों में होती है, वह इंसान की निष्ठुरता की पराकाष्ठा है, स्वार्थता की सीमा से परे है। जो जंगल छोड़ कर आबादी में घुसपैठ कर रहे हैं, उनके प्रति हमें संवेदनता के स्तर पर देखना-सोचना चाहिए।
सच बात यह है कि हम ऐसे घुपैठिये जानवरों को अपने शिशु की तरह स्नेह नहीं दे सकते। सच बात है। लेकिन उनके प्रति ऐसा व्यवहार तो कर ही सकते हैं, जिसमें हम अपने इंसान होने की शर्त को पूरा कर दें। संवेदनशील हो सकें। तरीके खोजें कि भविष्य में ऐसे जंगलों से इन जानवरों को अपना घर छोड़ कर आबादी की ओर न आना पड़े। और अगर आ ही जाएं, तो ऐसी प्रभावी कोशिशें अपना कर उन्हें वापस उनके रहवास तक सुरक्षित करवा दिया जाए।
यह उनकी उनकी सुरक्षा का मामला तो है ही, लेकिन उससे भी ज्यादा हमारी सुरक्षा, हमारी संवेदनशीलता और इस सृष्टि में सह-अस्तित्व का भी प्रश्न है। आबादी में घुस आ गये जानवर को मौत के घाट उतार दिया जाना हमारी इंसानियत पर कलंक है, असफलता है, पाखण्ड है।
एक महीना हो चुका है अमौसी में तेंदुआ को मौत के घाट उतारे हुए। लेकिन हत्याकाण्ड की जांच के लिए एक जांच-कमेटी भी बनायी गयी थी। जिसे पता करना था कि जब तेंदुआ को पकड़ने की पूरी तैयारियां थीं, तो उसे क्यों मारा गया। क्या कारण थे उसकी हत्या के। लेकिन शर्मनाक बात यह है कि इस कमेटी इस मामले में एक भी जिम्मेदार विभाग के किसी भी अफसर का बयान तक नहीं ले पायी है, जबकि उसे यह रिपोर्ट एक पखवाड़े में ही सौंप देनी थी। अब जरा उस हत्याकांड को अपने किसी आत्मीय शख्स की घटना के तौर पर देख-मानिये, जिसे एनकाउंटर में मौत के घाट उतार दिया गया हो। तब ही आपको अहसास हो पायेगा कि किसी मौत का दंश कैसा होता है। सच बात यह है कि हादसे में पुलिस के इंस्पेक्टर ने बाकायदा अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए ही इस तेंदुए को मार डाला था। यह हत्याकांड हमारी पुलिस की क्रूर और निर्मम कार्यशैली की प्रतिबिम्ब है, जिसकी शुरूआत भले ही ऐसे जानवरों से हो, लेकिन उसका अंत आम निरीह-निर्दोष आदमी तक होता है।
चलते-चलते आपको मैं आपको अपनी फेसबुक अपडेट भी पढ़वा दूं:-
क्या कहा ! लखनऊ में फिर एक तेंदुआ घुस आ गया है? तो क्या हुआ? याद नहीं है कि पिछले महीने भी तो एक तेंदुआ आया था? फिर क्या, फारेस्ट वाले टापते ही रह गये, लेकिन दारोगा जी ने पिटपिटिया निकाली और दाग दिया ससुरे के पिछवाड़े पर पांच गोली। राम राम सत्त हो गया ससुरे का।
तो भइया, टेंसन मत लो। जोगी-पुलिस के जाबांज पुलिसवालों को बुलाओ। एक सेकेंड में तियां-पांचा कर देंगे इस तेंदुआ का।
हमारे दारोगा लोग सूरमा-भोपाली हैं। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट।
गोली अंदर, प्राण बाहर
चल बे, जल्दी चल। काम निपटा कर चलो थानों में गाली-सत्संग करने भी जाना है यार।