बनारसी की मस्ती महिलाओं के कानों में उडेलती है पिघला सीसा
विदेशी महिलाओं के साथ मस्ती, घर की महिलाओं पर पाबंदी
कई दिनों तक सडक पर लोगों की घूरतीं निगाहों से खुद को बचाती हैं औरतें
छुट्टा सांड की तरह बस कामांध दौडते रहते हैं बनारस में बेशर्म होरियार
वाराणसी सत्तर के दशक में बनारस ब्याह कर आई गया (बिहार) की बिटिया पूनम अग्रवाल शादी के बाद ससुराल में पड़ी पहली होली को लेकर रोमांच की हद तक उत्कंठित थीं। बाकी की नवेलियों की तरह बनारस की रसीली-रंगीली होली के शोख और चटख रंगों में तन-मन भिगोने का, अपनों-परायों के संग एक रंग होने का सलोना-सा सपना उन्होंने भी अपने जेहन में पाल रखा था। उंगलियों की पोरों पर गिनते-गिनते आखिर पहली होली आ भी गई मगर होलिका की रात घरवालों को धूलिवंदन की तैयारियों की बजाय घर के खिड़की-दरवाजों की चूलें कसते देख उनके अचरज का ठिकाना न रहा।
इस किलेबंदी का रहस्य खुला रात में होलिका दहन होने के बाद, जब होरी और धमार के मस्त सुरों की जगह दरों-दीवारों की बची खुची दरारों से होकर अश्लील गालियों की बौछारें उनके कान में पिघले शीशे की तरह उतरती चली गई। मस्ती के नाम पर भौंडेपन का यह नंगा नाच दूसरे दिन भी तब तक चलता रहा जब तक रंग खत्म होने का सायरन नहीं बज गया। वह दिन और आज का दिन अग्रवाल परिवार की इस सुघड़ बहू की कुल 37 होलियां चौके में गुझिया और खड़पुडि़या तलते ही बीत गईं। मायूसी का धूसर रंग इंद्रधनुषी रंगों में भीगने और भिगोने के मासूम सपने को निगल गया।
तबसे अब में फर्क बस इतना आया कि होलिका की रात बच्चों- बहुओं को अश्लीलता के गंदी बौछारों से बचाने के लिए खिड़की-दरवाजे जड़ने का जो जतन पहले पूनम जी की सास करती थीं वह अब उन्हें करना पड़ता है। सच कहें तो यह दर्द सिर्फ पूनम अग्रवाल का नहीं बल्कि शहर बनारस की उस आधी आबादी का हैं जो साल के इस सबसे बड़े त्योहार की विद्रुपता के चलते इसमें सहभागिता के अधिकार से वंचित है। भंग की तरंग में बनारसी होली के ठाट को लेकर हम कसीदे चाहे कितने भी काढ़ लें कड़वा सच यही है कि मस्ती के नाम पर कुछ लोगों ने इस त्योहार को अश्लीलता और फूहड़पन का बजबजाता हुआ नाबदान बना दिया है। कृति के नाम पर चौराहे-तिराहे पर अश्लील प्रतीकों का अंकन। गीत संगीत के नाम पर द्विअर्थी गीतों का कानफोड़ू शोर।
होली साहित्य के नाम पर खुली पोर्नोग्राफी और हुड़दंग के नाम पर बेशर्म छेड़छाड़। महिलाएं तो महिलाएं हयादार पुरुष तक अश्लीलता की संड़ाध से बजबज सड़कों पर निकलने की हिम्मत नहीं जटा सकते। अफसोस तो इस बात का है कि गंदगी में लिथड़ते जा रहे मेलजोल के इस त्योहार को बचाने की बजाय कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी रिवाज और परंपरा की दुहाई देते न सिर्फ इस गलीज के पक्ष में तलवार भांजते नजर आते हैं बल्कि ऐसे आयोजकों और आयोजनों को मंच दे-देकर इनका हौसला भी बढ़ाते हैं। नगर की घनी आबादी अस्सी की रहनवार श्रीमती निधि मिश्र कहती हैं- ब्याह के आने के 25 वर्षो तक जाना ही नहीं की होली के त्योहार का मतलब क्या है। होली के एक दिन पहले ही बच्चों के साथ घर छोड़ देना पड़ता था।
वजह था मुहल्ले का वह होली समारोह जिसके मंच से माइक पर पढ़ी जाने वाली रचनाओं को सुनने के बाद सास-ननद की तो छोडि़ये मारे शर्म के अपने पति से भी आंख मिलाना मुश्किल होता था। सुना है आयोजन की जगह अब बदल गई है मगर जहां भी होता होगा वहां की स्थितियां यहां से अलग थोड़े ही होंगी।
भेलूपुर की रहने वाली संगीता पांडेय का कहना है- त्योहार पर हमारी भूमिका तो बस चूल्हे-चौके तक ही सीमित है।
होली के सतरंगी रंगों में क्या कोई रंग हमारे हिस्से का भी होता है?
सवाल कहें या फरियाद, संगीता का यह प्रश्न दरअसल शहर की सभी महिलाओं के भावों को अभिव्यक्ति देता है।