: जो किसान देश का गर्व हुआ करता था, उसे हगने को लेकर उसकी ही निगाह से गिरा दिया : अमिताभ बच्चन के शौच-प्रचार ने देश भर के किसानों को अपमानित-शर्मिंदा किया : दो-जून की रोटी जुटाने का तरीका बताओ, वरना एक दिन तुम्हारे कपार पर लोटा दे मारेगा खीझा हुआ किसान :
कुमार सौवीर
लखनऊ : जिस देश के नागरिकों को शौच कब, कहां, कैसे, कितना और क्यों करने का ज्ञान देने के लिए एक भारी-भरकम रकम अमिताभ बच्चन को अदा करनी पड़ती हो, चौबीसों घंटे टीवी पर विज्ञापन के तौर पर उसका प्रचार किया जाता हो, सारे अखबार इसी सवाल पर रंगे होते हैं कि देशवासी किस तरह सुरक्षित तरीके से हगा करें। उस देश के लोगो को जीएसटी के नुकसान या फायदा कैसे समझाया जा सकता है।
सोच कर बताइये कि इस शौच-ज्ञान के मुकाबले जीएसटी पर सरकार ने कितना प्रचार कराया है। बेशर्मी की हालत तो यह है कि अमिताभ बच्चन तो अपने 7 स्टार मकान के 5 स्टार शौचालय के सुनहरे कमोड पर निबटते हैं, जबकि पूरे देश के किसान और गरीब को हगने की स्टाइल को निहायत बदतमीजी की अदा में उसे शर्मिंदा कर रहे हैं। जिस किसान को नेहरू, शास्त्री और इंदिरा ने हरित-क्रांति और श्वेत-क्रांति जैसे अप्रतिम युद्ध-स्तरीय अभियानों के चलते जिस परिश्रमी किसान को अपना सीना तान कर खुद पर गर्व का अनुभव कराया, उसे अब हमारे भांड़-नचनियों के बल पर उन्हें शर्मिंदा करने का शर्मनाक अभियान छेड़ा जा रहा है। जो खेत उसका जीवन हुआ करता था, उसके पसीने से जो अपने खेत सींचा करता था, एक-दूसरे से मिलने-जुलने का माध्यम हुआ करता था, अब उसी किसान को घर-घुसना बनाने की साजिश हो रही है।
अमिताभ बच्चन वाला यह पोस्टर देखिये। हैरत की बात यह है कि अपने विज्ञापन में बच्चन लोगों को शर्म-हया को लेकर किसानों को बेइज्जत करते हैं, जबकि अपनी अधिकांश फिल्मों ने इन्हीं अमिताभ ने बेहूदगी, अश्लीलता और निरंकुश समाज-तन्तुओं को बुरी तरह घायल किया है। जरा गौर कीजिए, उस शायद हरामखोर नामक फिल्म में जिसमें अमिताभ ने हेरोइन की कुतिया के पिछवाड़े में भरी पार्टी में एक मिर्च तोड़ कर लगायी थी।
अजी जनाब। जीएसटी तो अब आया है, लेकिन हगने का कार्यक्रम तो हमारे जन्म से लागू है, मौत तक। हमारे बाप-दादा भी हगा करते थे और आदम-हौव्वा भी। प्राणी को हगने की तमीज सिखाने का यह ज्ञान न जाने किस बेहूदा ने देश को थमा दिया।
अब तो यही बचा है कि लोग एक-दूसरे से मिलते ही सबसे पहले यह पूछा करेंगे, कि:- दोस्त तुमने ठीक से हग लिया, या दो-चार लेंड़ी अटकी-फंसी हैं अभी? कहां निबटे हो, खेत में या घर में? हाथ धो लिया, मिट्टी से या साबुन से। इस्तिंजा पाक हो गया या नहीं? साबुन घड़ी वाला था अथवा डव? घरवाले बीवी-बच्चे-अम्मा-बुआ सब हग चुके या अभी कोई बाकी है? देखना फुफ्फा ठीक से हग लें, वरना राष्ट्रपति चुनाव में सटके मुंह लटके आड़वाणी की तरह सूखी-झुरानी तरोई-नेनुआ बन जाएंगे।
छोड़ो यार। जीएसटी पर बात छोडि़ये। जो हमारी प्रियारिटी जीएसटी कैसे हो सकती है। हमने हगने के लिए पैदा हुए हैं, इसलिए जो चाहता है, हमें हगवा लेता है, जहां चाहे हगवा लो, कितना भी हगवा लो। गांववालों को परिवार को दो-जून की रोटी मुहैया कराने वाला रोजगार दिलाने की कोशिशें करने के बजाय, तुम हगने की तमीज सिखाओगे, तो एक दिन वही किसान खीझ कर पानी का लोटा तुम्हारे कपार-माथे पर दे मारेगा।
जीएसटी का तुम क्या करोगे बेटा हग्गू बाबू ? तुम्हें तो यह भी सोचने की फुर्सत नहीं कि जब जीएसटी तुम्हारे खाने को ही कम कर देगा तो हगोगे कैसे?