: कोरोना-योद्धा के बाद अब मार्केट में हाजिर हैं माहवारी-योद्धा, यानी मासिक-धर्म योद्धा अर्थात मेन्स्ट्रुएशन-वारियर : सूचना विभाग, प्रेस, पुलिस, ग्रामप्रधान और समाजसेवियों को भी तेल-लगाने में अव्वल हैं योद्धा-विक्रेता :
दोलत्ती संवाददाता
लखनऊ : बाजार को देखने, महसूस करने और उसे सूंघ-चाट कर उसकी खरीद-फरोख्त में माहिर लोगों ने कोरोना की अस्मिता, जीजिविषा, उसके मारक-भाव और उसके संक्रमण की रफ्तार तक को बेच डाला है। जहां देखो, कोरोना-योद्धाओं की लाइन लग गयी है। धकाधक प्रमाणपत्र डिजाइन होने लगे हैं, आनन-फानन सार्टिफिकेट छपने और थमाने की आंधी शुरू हो गयी है। ऑनलाइन प्रमाणपत्रों की सप्लाई भी हो रही है। लगने लगा है कि ऐसे फर्जी योद्धाओं के नाम पर ऐसे धंधेबाज लोग कहीं कोई कोरोना की अक्षौहिणी-सेना न खड़ी कर दें।
सच बात तो यही है कि ऐसे धंधे में शामिल लोगों में एकाध को अगर छोड़ भी दिया जाए, तो अधिकांश मामलों में प्रमाणपत्र जारी करने वाले संस्थान, उसके कर्ताधर्ता और ऐसे प्रमाणपत्र लेकर सोशल मीडिया में अपनी पीठ ठोंकने वालों का धंधा ही फर्जीवाड़े का है। जिसको जी में आ रहा है, वह मनचाहे व्यक्ति को प्रमाणपत्र दिये जा रहा है। असरदार लोगों को यह हाथोंहाथ उनके दफ्तर पर जाकर थमाया जा रहा है और उसका प्रचार सोशल मीडिया में किया जा रहा है। ताकि मार्केट में उनकी हैसियत बन जाए। नतीजा यह होता है कि अनजान लोग बड़े लोगों की जमात में खुद को शामिल करने की होड़ में जुट जाते हैं। और ऐसे लोगों में शामिल होने के लिए वे कुछ रकम देने तक भी तैयार हो जाते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में तो ऐसी प्रवृति तो खूब है। धंधा चकाचक चल रहा है।
अब हालत यह है कि चौपतिया अखबार, पोर्टल-टीवी, और चटनी-मुरब्बा और साबुन व्यवसायी भी इस धंधे में आगे आ गये हैं। शराब व्यवसायी और ट्रांसपोर्टर भी लाइन में हैं और अपने प्रतिष्ठानों के हिसाब से ही नये-नये प्रमाणपत्रों का सैलाब बढ़ा रहे हैं। डिजाइनरों की तो पौ-बारह हो गयी है।
हालत यह है कि इस बहाव में प्रमाणपत्र बांटने वालों को न तो लिखने की तमीज है, और न डिजाइन की समझ। एक तो इतने जोश में आ गया कि उसने वैश्विक महामारी योद्धा के बजाय वैश्विक माहवारी योद्धा तक लिख दिया। यानी मासिक-धर्म योद्धा अथवा मेन्स्ट्रुएशन वारियर। हैरत की बात यह है कि प्रमाणपत्र बांटने वालों में दो महिला भी हैं। जो इस संगठन की महिला विंग की अध्यक्ष और महामंत्री की कुर्सी पकड़े हैं। भाषा यह है कि, “बिना जान की परवाह।” यहां तक तो गनीमत है, लेकिन लोगों को डर इस बात पर है कि ऐसे लोग अपने निम्नतम पायदान से सरक कर कहीं अण्डकोष-योद्धा तक न पहुंच जाएं।