तर्क से पिस्तौल तक बदल चुकी बलियाटिकों की आस्था

दोलत्ती

: राजनीति, पुलिस, अफसर और पत्रकारिता भी अपराध की सुरंग में विलीन हो गयी : पत्रकार हत्याकांड की जडें तो बलिया के बदली फिजां में है : जनता भुखमरी का जश्न बाटी-चोखा या सत्तू के लेस्सी में खोजती है : 

कुमार सौवीर

बलिया : यूपी के पूर्वांचल की पूंछ रहा बलिया वाकई बलिया ही है। पवित्रता से रसातल की ओर बहती रसधार की तरह। जैसे गंगोत्री से गिरती गंगा समुद्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने मूल्य और चरित्र को भी बदल देती है न, ठीक उसी तरह बलिया भी। सम्पूर्ण और सम्पूर्णत: भाव में।

अब देखिए न। जमदग्नि ऋषि की तपोस्थली से निकले मंगल पांडेय ने सन 1857 में और चित्तू पांडे ने सन 1942 में बलिया में रह कर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए। हालत यह रही कि आजादी से पहले ही बलिया के लोगों ने बलिया से गोरी हुकूमत को उखाड कर भगाया और करीब 14 दिन तक अपना राज कायम बलिया को स्वतन्त्र रखा। लेकिन अब हालत यह है कि बलिया के उन्हीं लोगों के जातीय वंशजों ने पंडित मंगल पांडे और पंडित चित्तू पांडे के नाम रख दिया। चंद्रशेखर के उठने से बलिया फिर देश में चर्चित होने लगा, जब चंद्रशेखर ने गांधी जी की तर्ज में दिल्ली तक पदयात्रा कर डाली।

लेकिन चंद्रशेखर ने बाकी देश को एक नयी साहसी विचारधारा तो दे दी, मगर आर्थिक हितों-स्वार्थों में घिरने भी लगे। चिंतन की दिशा विकास से कोसों दूर थी। जिन्दा रहते ही उन्होंने अपने नाम पर एक चंद्रशेखर नगर बनवा लिया, जिसमें पद से हटने के बाद वहीं एक विशाल मकान में उनका दरबार लगने लगा।
दुर्गा-सप्तशती में जिस सैकडों कोस पर पसरे सुरहा ताल का जिक्र है, वह बलिया में ही है। इस ताल और गांव बसंतपुर का सौन्दर्यकरण के नाम पर चंद्रशेखर के अफसर और करीबियों की टोली ने खूब लूटा, आज वह बर्बाद पड़ा है। अब वहां स्थानीय शोहदे युवक-मवाली आने-जाने राहगीरों को पार्किंग के नाम पर छेड़खानी और मारपीट तक करते हैं। जुआ और शराबखोरी का अड्डा बन गया है यहां बना भवन। इस पर कब्जा किये लोग चंद्रशेखर के करीबी लोगों के बिगडे नवाबी औलादें हैं। जाहिर है कि जाति दबंग ठाकुरों की है।

सन-13 के नवंबर में मैं बीएसएफ वाले जनार्दन यादव और भड़ास वाले यशवंत सिंह के साथ सुरहताल गया था। वहां एक स्कूल को लड़कियों को घुमाने वाली टीचरों के यही पर नशे में धुत्त चार-पांच शोहदे गली-गलौच कर रहे थे। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैंने एक को पकड़ा और अपना घुटना पूरी ताकत के साथ उसकी दोनों टांगों के बीचोंबीच जड़ दिया। वह जमीन पर धड़ाम से गिर कर बिलबिलाने लगा। दूसरे को भी कई झांपड़ रसीद किये। नतीजा, बाकी तो भाग निकले जबकि जमीन पर दर्दनाक चीखें निकाल रहे शोहदे ने मेरे पैर पकड़ लिये।

दरअसल, बलिया हमेशा से ही वैचारिक स्तर पर बहुत मजबूत जिला रहा है। अपने बच्चों को प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कद तक पहुंचाने के लिए यहां के अधिकांश लोग हाईस्कूल होने के बाद बच्चों को दो जोडी कुर्ता-पाजामा या धोती थमा देते हैं कि जाओ अब चंद्रशेखर बनने की कोशिश करो। नतीजा, यह बच्चे इंटर, बीए, एमए, बीएड और एलएलबी तक खुद अपने परिश्रम के बल पर पढ लेते थे। नितांत अपने बल पर, अपने परिश्रम से। लोगों से बातचीत के दौरान उनमें वैचारिक और तार्किक क्षमता विकसित होती थी। वे बुद्धि, तर्क, साहस और क्षमता के बल पर राजनीति या वकालत अथवा शिक्षा जगत में प्रवेश कर लेते थे। लेकिन पिछले करीब एक दशक में यहां के लोगों की आस्था अब तर्क, परिश्रम, आस्था, तर्क वगैरह पर खत्म होने लगी है। वे अब कट़टा, पिस्तौल और तोप तक की बात करने लगे हैं। उन्हें तत्काल धन कमाना है, चाहे कुछ भी तरीका हो।

हालत यह है कि तीन ओर से बिहार से घिरा जो बलिया पहले अपनी बोली और राजनीति के लिए पहचाना जाता था, अब अपराध से पहचाने लगा है। चाकू, गंडासा और तलवार तक यहां इस्तेमाल नहीं होता था। पांच-साल के बाद ही कहीं कोई हत्या की खबर होती थी, तो पूरा शहर दहल जाता था। लेकिन अब यहां सीधे पिस्तौल या रायफल की भाषा बोली जाती है। वजह है पैसा, ख्वाहिशें, पटटीदारों के झगडे, ग्लैमर, ऐश्वर्य, ठेकेदारी और सामने वाले को किसी भी कीमत पर झुकाने की जिद। इसमें अराजक होते जा रहे हैं पत्रकार। फेफना में सहारा समय टीवी के स्ट्रिंगर रतन सिंह की हत्या इसी आदत की ताजा कडी है। सूत्र बताते हैं कि इस हत्या को बुनने के लिए बलिया के ही चंद पत्रकारों ने पुलिस से मिल कर तानाबाना तैयार कराया। कभी बच्चा पाठक वाले बलिया के “नेशनल गेम” खेलने वालों की तादात यहां खासी थी, लेकिन अब ऐयाशी करने वालों का बोलबाला होता जा रहा है।

बागी बलिया का किस्सा भी गजब अजूबा रहता है। बलिया में भाजपा के विधायक सुरेंद्र सिंह एक दारोगा को इतना मार सकते हैं कि उसका घुटना तक टूट जाए। जेल की हालत यह है कि कोई भी शख्स यहां किसी को गिरोह बना कर बुरी तरह मार सकता है, जैसे बागपत जेल में मुन्ना बजरंगी मारा गया था। इतना ही नहीं, इस घटना की रिकार्डिंग भी पौन घंटों तक कर सकता है। अक्सर तो यहां पता ही नहीं चलता है कि किस जगह गडढा है, और कहां पर आसमान दौडने लगता है। बाकी जगहों पर भले ही सड़क पर तालाब बन जाता है, लेकिन बलिया में तो तालाब में ही डगर दुबक जाती है। जहां लोग कहते हैं कि दिशा पूरब की ओर दीखती है, अक्सर उसका दक्खिन साबित हो जाती है। यहां के लोगों के बारे में भी एहसास नहीं हो पाता है कि वे कितना जमीन पर धंसे हैं और कितना जमीन से उपर मौजूद हैं। पत्रकार के तौर पर अपना खूंटा गाड़े रहे रतन सिंह चार दिन पहले यहां के रतन सिंह की हत्या का मामला भी उसी तरह साबित होने लगा है।

जिले में बदहालती का अंदाज इसी बात पर लगाइये, कि यहां के बेल्थरा का एसडीएम किसी गुंडे की तरह मास्क न पहने लोगों पर बर्बर लाठीचार्ज करता दिखा। जबकि रतन सिंह की हत्या में फेफना थाना प्रभारी की कार्यशैली ठीक उसी तरह रही, जैसी विकास दुबे वाले कानपुर के चौबेपुर थाना प्रभारी की हरकत। जनचर्चाओं के अनुसार इस थाना प्रभारी की पत्रकार रतन सिंह की हत्या में मिलीभगत थी।

रतन सिंह हत्याकांड की असलियत को खोजने के लिए दोलत्ती डॉट कॉम फिलहाल बलिया में डेरा डाले है। जिस भी शख्स को इस हत्याकांड या यहां की पत्रकारिता के बारे में कहना हो, तो वे 9453029126 पर फोन:वाट़सऐप के साथ ही साथ पर संपर्क कर सकते हैं। वे चाहेंगे, तो हम अपने सूत्र की गोपनीयता बनाये रखने के अपने संकल्प को सदैव की तरह सम्मान करते रहेंगे।

संपादक: कुमार सौवीर

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4 thoughts on “तर्क से पिस्तौल तक बदल चुकी बलियाटिकों की आस्था

  1. बलिया को सारी सरकारों ने नज़रंदाज़ किया और बलिया के नाम से सर ऊँचा रखने वाले बलिया को लूट कर दिल्ली लखनऊ चले गए । नाम विश्व में लेकिन एक भी industry नहीं केवल ग़रीबी । बलिया में अब कोइ बाग़ी भी नहीं है वो केवल लिट्टी चोखा बेचता है

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