बच्चियों से रेप: फांसी का प्राविधान तो पहले से है

सैड सांग

: सवाल यह है कि जब पर्याप्‍त कानून मौजूद था, फिर केंद्र सरकार ने यह नयी व्‍यवस्‍था वाला अध्‍यादेश क्‍यों जारी किया : मुकदमे का फैसला होने में 25 30 साल लग जाए तो फिर नाकारा और बेशर्म है तुम्हारी सत्ता : ऐसे में कैसे हो सकता है आम आदमी सुरक्षित :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सवाल यह है कि जब किसी भी बलात्कारी पर कड़ी सजा देने के प्राविधान पहले से ही न्यायपालिका के पास है तो फिर बलात्कारों के मामलों पर केंद्र सरकार ने यह नया अध्यादेश क्यों जारी कर दिया कि नन्‍हीं बच्चियों से बलात्‍कार और हत्‍या में दोषी पाये गये मुजरिमों को फांसी तक की सजा दी जा सकती है। इसके कई बरस पहले तक कई मामलों में कुछ संवेदनशील न्‍यायाधीशों ने पहले से मौजूद कानूनों के आधार पर जघन्‍य बलात्‍कार और उसके बाद पीडि़त बच्चियों की नृशंस हत्‍या करने में अपराधी साबित हुए अपराधियों को फांसी की सजा सुनायी थी।

हालांकि इन हालातों के होते हुए भी सच यही है कि जघन्‍य अपराधों की सुनवाई में सामान्‍य तौर पर डेढ़ से तीन दशक तक का वक्‍त लग जाता है। सामान्‍य तौर पर इन हालातों का ठीकरा सीधे न्‍यायपालिका पर भी फोड़ा जाता है। ऐसी हालत को देखा जाए तो न्यायपालिका को और ज्यादा गम्‍भीर, सक्रिय और संवेदनशील बनाने की जरूरत है, ताकि वह वादियों और समाज को सहज और सुलभ न्‍याय मुहैया कर, और अपराधियों के खिलाफ कड़ा दण्‍ड दिला सके। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसा करने के बजाय हम लगातार नए-नए और अनावश्यक कानूनों को घिरते बुनते रहे हैं। पिछले हफ्ते केंद्र सरकार द्वारा बलात्‍कार के मामलों पर कड़े दण्‍डों के प्राविधानों वाला जो अध्‍यादेश जारी कर मुजरिमों को फांसी की सजा दिलाने का ऐलान किया है, वह उसी मकड़जाल का एक नमूना ही तो है।

न्यायपालिका को कुछ जानने-समझने वाले लोग और न्‍यापरिसरों व अदालतों से जुड़े लोगों को खूब पता है कि न्यायपालिका के पास पर्याप्त अधिकार है। लेकिन इस बात का जवाब किसी के पास भी नहीं है कि इतने पर्याप्त और सक्षम कानूनों के होते हुए भी न्यायपालिका क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। क्या वजह है कि समाज के लिए गंभीर और जघन्‍य-नृशंस अपराध साबित हो सकने वाले मामलों पर अदालत लम्‍बे समय तक खामोश रहती है। और नतीजा यह कि ऐसे मामलों को निपटाने मैं उसे 10-20 साल नहीं, बल्कि अक्सर तो 25-30 साल तक लग जाता है। विलम्‍ब से गवाही होने से अधिकांश गवाह अपना बयान बदल देते हैं, या फिर उनकी याददाश्‍त गड़बड़ाने से मुकदमा संदेहों में घिर जाता है। नतीजा, मुकदमे छूट जाते हैं और अपराधी अदालतसें से छूट कर समाज का चरित्र विद्रूप रचने में जुट जाता है।

लखनऊ के आशियाना कालोनी में करीब 15 बरस पहले हुए उस हादसे की याद तो आपकी स्‍मृति-पटल पर शायद अब तक दर्ज होगी, जब एक एक नन्ही मजदूर बच्‍ची के साथ चंद बड़े और असरदार लोगों की निरंकुश औलादों ने दुराचार कर उसे मरणासन्‍न हालत तक पहुंचा दिया था। यह पूरा हौलनाक हादसा आज भी आशियाना बलात्‍कार-काण्‍ड के तौर पर जाना-पहचाना जाता है। शाम के धुंधलके में शहर के एक बड़े दबंग और राजनीति लखनऊ के आशियाना में हुआ था। अदालत में इस मामले की धज्जियां तो खूब उधेड़ने की तैयारियां थीं, लेकिन उस सामूहिक दुराचारी लोगों में से एक व्‍यक्ति भी शामिल था, जिसके चाचा समाजवादी पार्टी के बड़े असरदार नेता था।च

फिर क्‍या था। लखनऊ के चंद बड़े वकीलों ने मिलकर इस मामले को संवेदनशीलता की जमीन पर नहीं, बल्कि अपने मुअक्किल के रसूख और उनकी खनखनाती रूपहली थैली की भौतिकता के सामने घुटने टेक दिये। कितने शर्म की बात है कि इन वकीलों ने इस मामले को करीब 10 बरसों तक केवल इसी मुद्दे पर लटकाये ही रखा, कि उस सामूहिक दुराचार-काण्‍ड का मुख्‍य अभियुक्‍त हादसे के वक्‍त नाबालिग था। हैरत की बात है कि इन वकीलों की दलीलों का सिक्‍का अदालतों में लगातार पूरी बेशर्मी की धमक के साथ चलता ही रहा। जबकि किसी भी व्‍यक्ति के नाबालिग होने की बात साबित करने के लिए केवल एक डॉक्‍टरी-जांच से ही पर्याप्‍त थी, जिसे अधिकतम एक घंटे में निपटाया जा सकता था। इतना ही नहीं, उन वकीलों ने उस दुराचारी के उम्र को छुपाने की सारी कोशिशें कीं, लेकिन आखिरकार उस दुराचारी की हाईस्‍कूल का प्रमाणपत्र ही इस तथ्‍य को साबित करने के लिए पर्याप्‍त था, जिसमें वह दुराचारी पूरी तरह बालिग था। मगर जज लोग वकीलों के ऐसे षडयंत्रों की ओर से मुंह मोड़े बैठे हीरहेेे (क्रमश:)

इधर नन्‍हीं बच्चियों के साथ हुईं बलात्‍कार के बाद हत्‍याओं की आंधियों ने साबित करने की यह मजबूत पैरवी शुरू कर दी है कि हमारा देश एक अराजक समाज की शक्‍ल अख्तियार करता रहा है। लेकिन इसके पहले कि इस मामले पर कोई सार्थक राष्‍ट्रीय बहस हो पाती, सरकार ने उन हादसों से भड़कीं जन-भावनाओं पर जो फैसला किया, वह किसी भी सभ्‍य देश को सवालों के कठघरे में खड़ा कर देता है। बहरहाल, इस पर हम एक श्रंखलाबद्ध लेख प्रकाशित करने जा रहे हैं। आपसे अनुरोध है कि हमारे इस अभियान पर आप भी जुड़ें और खुद भी अपनी राय व्‍यक्‍ त करें। आपकी भावनाओं को हम पूरे सम्‍मान के साथ अपने प्रख्‍यात न्‍यूज पोर्टल www.meribitiya.com पर प्रकाशित करेंगे। अपनी राय आप हमारे ईमेल  kumarsauvir@gmail.com पर भेज सकते हैं।

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रेप पर रेप्‍चर्ड फैसला

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