औलाद तो शांतनु शुक्‍ला जैसी हो। या फिर न हो

दोलत्ती

: लखनऊ में दो ही औलादें नामचीन रहीं। एक नसीरूद्दीन, दूसरा शांतनु शुक्‍ला : हैदर नहर को नाला बना डाला लखनवी नवाबों ने : कुछ लोग अपने बच्‍चों को भविष्‍य मानते हैं, जबकि कुछ लोग उन्‍हें उल्‍लू का पट्ठा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : अवध की राजधानी रहे लखनऊ की ख्‍याति भले ही हमेशा उसके राग-संग, खान-पान, नाच-गाना, खातिर-तवज्‍जो, तमीज और सलीकों को लेकर रही है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन उसमें एक हिस्‍सा हमेशा छूटता ही रहा है इतिहासकारों और साहित्‍यकारों की नजर से। वे हमेशा यह तथ्‍य भूलते रहे हैं कि लखनऊ की पहचान उसके औलादों के नाम पर भी गुलजार रही है, आबाद रही है। लखनऊ में दो ही औलादें थीं, एक नसीरूद्दीन, जबकि दूसरी शांतनु शुक्‍ला। बाकी के बारे में तो बाकी लोग ही अपने-अपने अनुभवों के बारे में सोचेंगे, बतायेंगे।
सच बात तो यही है कि अगर औलादें नहीं होतीं तो उसके बाप को कौन जानता। अगर पट्ठा न होता, तो उल्‍लू को कौन जानता-पहचानता या याद कर पाता। इस हालत-नुमा समीकरण को आम आदमी जब खुश कर महसूस करता है, तो बरबस बोल पड़ता है कि अरे यह मेरी औलाद है। लेकिन जब लोग अपने बच्‍चों पर नाराज होते हैं, खफा हो जाते हैं तो उसे आदर-फादर करना शुरू कर देते हैं। लेकिन लखनऊ और अवध ही नहीं, बल्कि अवधी-रस से भीगे इलाकों में इसके लिए कुछ अनोखे शब्‍द भी गढ़ लिये गये हैं। मसलन, उल्‍लू का पट्ठा।
हालांकि यह उपाधि नकारात्‍मक भाव रखती और दिखाती भी है, लेकिन लखनऊ को खंगालने वाले जानते हैं कि पिता के अधूरे कामों को हमेशा औलादों ने ही संभाला और संवारा है। मसलन गाजीउद्दीन हैदर ने जो नहर बनानी शुरू की थी, उसे उसके बेटे नवाब नसीरूद्दीन हैदर ने पूरा करना शुरू किया। यह दीगर बात है कि गाजीउद्दीन हैदर और नसीरूद्दीन जैसे बाप-बेटे ने काम किया, मगर अधूरा ही छोड़ा।
तो मान लीजिए कि ग़ाजी उद्दीन हैदर आज से करीब साढ़े तीन सौ बरस पहले अवतरित हुआ। लखनऊ में। पूरा अवध उसका था। नवाब था वह। कंवरियों को कानपुर से गंगा नदी का जल लाकर महादेवा मंदिर के शिवलिंग पर महाभिषेक करने में दिक्‍कत न हो, इसलिए गाजी उद्दीन हैदर ने एक नहर का निर्माण शुरू कर दिया। लेकिन इसी बीच उसकी मौत हो गयी, तो उसके बेटे नसीरूद्दीन हैदर ने यह दायित्‍व खुद सम्‍भाल लिया। लेकिन अभी यह काम चल ही रहा था कि नसीरूद्दीन भी मर गया। इसके साथ ही यह नहर बनने की योजना ही खत्‍म हो गयी। लेकिन लखनऊ में यह करीब 18 किलोमीटर दूर तक यह नहर बन चुकी थी, और उसके बाद के लखनऊ के नवाबी लोग हरामखोर बनते जा रहे थे, मतलबी हो गये थे, घूसखोर और कमीने बनते जा रहे थे। इसलिए इन हैदरों की सारी मेहनत मिटियामेट हो गयी।
यह नहर जो इन पिता-पुत्र का सपना हुआ करता था, उसे बाद के लखनवी लोगों ने अपनी गंदगी धोने-पोंछने के काम में लगा दिया। यानी अब यह तय हो गया कि कानपुर से पवित्र गंगाजल लाकर उसे बाराबंकी के महादेवा मंदिर के शिवलिंग पर महाभिषेक किया जाने की प्‍लानिंग थी, वह अब लखनऊ के नाले-नालियों के गंदे पानी को ढोकर उसे गोमती नदी में उलीचा जाएगा।
जो यह काम आज तक जारी है और अब कत्‍तई मुमकिन नहीं है कि वह अपने मूल सोच तक पहुंच पायेगा।
लेकिन कुछ ऐसे भी औलादें होती हैं, जो तन-मन-धन से जुटी ही रहती हैं। और वे इसकी फिक्र भी नहीं करती हैं कि उनके बापों ने क्‍या किया। वे तो केवल यह देखा करते हैं कि वे खुद क्‍या कर रहे हैं।
ऐसी ही एक अजीमुश्‍शान औलाद का नाम है शांतनु शुक्‍ला। पेशे से वकील हैं। वकालत में उस शाखा की डगर पर चल रहे हैं, जिसे शिक्षण वह शिक्षा-सामग्री सहेजने की प्रक्रिया कहा-माना जाता है। यह एक दिलचस्‍प और चुनौती मिशन माना जाएगा।
चूंकि मैं शांतनु का मानस-बाप हूं, इसलिए इतना जरूर बताऊंगा कि शांतनु मेरे लिए निजी तौर पर कैसे एक महान पुत्र हैं। मुझे अपने शांतनु शुक्‍ला के वकील होने पर उतना ज्‍यादा फक्र नहीं है, जितना इस बात पर गर्व है कि शांतनु को वह सब आज भी याद है, जिसे मैं अब तक भूल चुका हूं। पिछले दस बरस पहले मेरा ब्रेन-स्‍ट्रोक पड़ा था। उसके पहले मैं पचासों हजार शेर, शायरी, कविता, छंद, दोहा वगैरह मुंहजुबानी याद था। लेकिन मस्तिष्‍क-आघात के बाद यह सब पूरा सेक्‍टर ही दिमाग से हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म हो गया। लेकिन पिछले तीस-बत्‍तीस बरसों के दौरान जितना भी मैंने लिखा था, शांतनु को वह सब कुछ जस का तस याद है।

और आज खास वजह से शांतनु की याद आ रही है। वजह है शान्‍तनु का जन्‍मदिन। आज ही उनका लल्‍लन-टॉप अवतरण हुआ था।
अरे नहीं नहीं। अभी वे जिन्‍दा हैं, बाकायदा जिन्‍दा हैं। और इंशा-अल्‍लाह मेरे बाद ही खात्‍मा-ए-किस्‍सा में दफा होंगे इस खाक-नशीनों की दुनिया से

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