इसी बेटी पर आप गर्व करते थे, मेधा पर घमंड था? वो मर गयी

सैड सांग

: दो मेधावी बेटियों की आत्महत्या ने आपके सपनों को चकनाचूर कर दिया : बीएचयू की प्रोफेसर और पूसा इंस्टीच्यूट की वैज्ञानिक की मौत हमारी खोखली मनो-सामाजिक इमारत है : बेटियों ने बताया तक नहीं, बस फांसी पर लटक गयीं : आत्महत्या कर रही हैं आपकी-हमारी बेटियां- एक :

कुमार सौवीर

नई दिल्ली : हमारी और आपकी दुलारी और प्राणों से प्‍यारी बेटियों ने खामोशी के साथ मौत को चूम लिया, और हमें खबर तक नहीं। हम-आप सिर्फ इसी गफलत में रहे कि यह बेटियां आपसे पूरी तरह खुली हुई हैं, और जो भी होगा, हमें-आपको बताती रहेंगी। लेकिन उसने किसी से कुछ भी नहीं कहा। बस मौका मिलते ही अपने कमरे को बंद किया और पंखे से दुपट्टे से फांसी लगायी और खुद को लटका दिया। आजिजी से इस कदर रही कि उन्होंने मौत को पूरी इत्मीनान के साथ गले लगाया और किसी को भी कानों-कान खबर तक नहीं लगनी दी, कि उसे लोग बचाने की कोशिश तक कर सकते।

बनारस से लेकर दिल्ली तक का पूरा इलाका मेधावी बच्चियों की आत्महत्याओं से हाहाकार कर रहा है। बनारस में स्वा‍ति पाण्डेय ने भेलूपुर में फांसी लगा ली, तो पूजा राय ने दिल्ली  के पूसा रोड स्थित सरकारी मकान में मौत को गले लगा लिया। स्वाति बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में सहायक प्रोफेसर थी, जबकि पूजा राय राष्ट्रीय कृषि संस्थान में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थीं। इन दोनों की ही उम्र बस वही 30-32 के आसपास ही थी। पढ़ाकू, कैरियर के प्रति सतर्क, जागरूक, परिवार के प्रति सरल, सजग और शायद अपने संकल्पों के प्रति बेहिसाब सपनों को दफ्न देने वाली साहसी लड़कियां थीं यह लोग। लेकिन अचानक उन्होंने आत्महत्या कर लिया।

स्वाति पाण्डेय और पूजा राय ने अपना पूरा तीस साल बरस खुद को साबित करने के लिए स्वाहा किया होगा। न इधर देखना और न उधर झांकना। केवल पढाई और सिर्फ पढ़ाई। बहुत हुआ तो नजदीकी परिवार। शुरूआत से ही अपना लक्ष्य बना डाला होगा इन लड़कियों ने। किसी ने संकल्प लिया था कि वह शिक्षिका बनेगी और वह भी विश्वविख्यात विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ायेगी। उधर  किसी ने तय लिया था कि उसके जीवन का मकसद केवल देश की भुखमरी को निजात दिलाना और किसानों-खेती को विकसित करना ही होगा जहां वह देश के किसान और खेत को आधुनिक जानकारियों-प्रोद्योगिकी से लैस कर अपने देश के विकास के लिए अपना योगदान तय करेंगी।

लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। सारे के सारे संकल्प रेत की अट्टालिकाओं की तरह ढह गये। कल की इन मेहनती, मेधावी और संकल्पवान बच्चियों के नाम आज इतिहास के पन्नों तक सिमट गये हैं।

जाहिर है कि उनमें आत्महत्या का विचार अचानक ही नहीं आ गया होगा। न जाने कितने दिनों से वे त्रासदी झेल रही होंगी। कितना आत्म-मन्थन किया होगा इन बच्चियों ने। अपने कैरियर के प्रति इतनी सजग और अपनी सफलताओं के प्रति संजीदा इन बच्चियों ने कैसे खुद के सपनों को ठोकर से मारा होगा? कैसे कितने झंझावातों से जूझी होंगी वे बच्चियां? मरने के पहले की कैसी-कैसी मानसिक संत्रास से भिड़ी होंगी यह बच्चियां? वही दुपट्टा जो उनके सौंदर्य और वेश-भूषा का अभिन्न हुआ अंग रहा होगा, कैसे उसे इन बच्चियों ने अपने गले से बांधा होगा?

कुछ न कुछ था ही। कोई न कोई संकल्प तो था ही उमड़ा होगा, जिसने उनके पूरे सारे पिछले सारे संकल्पों  को रौंद डाला होगा।

क्‍या आपको ऐसा नहीं महसूस हो रहा है कि यह सटीक वक्त है, जब हम इस बारे में फिर नये तरीके से सोचें, बातचीत करें और समाधान खोजने की कोशिश करें ताकि हमारी-आपकी बेटियां आइन्दा मौत को गले लगाने पर मजबूर न हों। आइये, हम नियति नहीं बदल सकते, लेकिन ऐसी अकाल मौतों तो रोक ही सकते हैं, जिनके लिए हम-आप खुद जिम्‍मेदार हैं। (क्रमश:)

यह लेख श्रंखला है। सिलसिलेवार चलेगी।

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