: शब्द केवल भाषा-बोली ही नहीं, बाकायदा तोप होते हैं : मसाना-श्रेष्ठ बनारस में काशी में चल रहे विकास कार्यों की असलियत जाहिर की, तो राज्यमंत्री ने जिला प्रशासन ने तत्काल हस्तक्षेप कर दिया : अरुण मिश्र ने लिखा बेहूदा विकास-कार्यों पर खर्रा, एके लारी ने मड़ुआडीह पर कलम चला कर उसे बनारस बनवाया :
कुमार सौवीर
लखनऊ : जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो, यह तो बहुत पुराना और बहु-प्रचलित शेर है। यह शेर साबित करता है कि शब्द अपने आप में एक जबर्दस्त ताकत होते हैं। मगर वाराणसी के दो पत्रकारों ने यह शेर साकार कर दिया। साबित कर दिया कि अगर जज्बात हों, और होने के साथ पूरी ताकत के साथ मजबूत हों, तो उसके बाद किसी ताकत या पैरवी की कत्तई जरूरत नहीं होती है। सच बात तो यही है कि इनमें से एक पत्रकार ने मडुंवाडीह पर कलम चलायी तो, रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर बनारस कर दिया गया। जबकि दूसरे पत्रकार ने इस प्रचीनतम शहर में चल रही प्रशासनिक नौटंकी पर रोक लगवा दिया, जो यहां सौंदर्यीकरण के नाम पर चल रहा था।
श्मशान-श्रेष्ठ नगरी वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार एके लारी किसी पहचान के मुंहताज नहीं हैं। पूरा जीवन खपाया है एके लारी ने यहां। हाल ही उन्होंने एक सवाल उठाया कि इस महानगर में वाराणसी और काशी नाम तो रेल-रूट पर मौजूद है, लेकिन बनारस नाम का कोई भी रेलवे स्टेशन यहां नहीं है। जाहिर है कि बनारस की गैरमौजूदगी यहां आने वाले लोगों में खूब अखरती है। वैसे भी यहां सांस्कृतिक रूप से बनारस उतना ही मौजूद है, जितना वाराणसी और काशी। बस इसके बाद से ही एके लारी ने इस पर लेखनी को बाकायदा अभियान के तौर पर अपनाया और उसके बाद ही रेल-प्रशासन ने यहां वाराणसी, काशी और बनारस के तीनों नामों को अब पूरी तरह सांस्कृतिक और रेल-पहचान दे दी गयी है।
और अब देखिये अरुण मिश्र की कलम। काशी में विकास कार्यों और सौंदर्यीकरण के लिए जो काम चल रहा था, जिसका परिणाम अर्थ का अनर्थ कर डालता। लेकिन अरुण ने जो लिखा, उसे यहां के शहर उत्तरी से विधायक और राज्य के स्टांप राज्यमंत्री रवींद्र जायसवाल ने बहुत गम्भीरता के तौर पर देखा और जिला प्रशासन को सख्त ताईद की कि इस तरह के काम किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं की जाएंगे। कोई भी प्रशासनिक कदम यहां की जरूरत के मुताबिक ही होने चाहिए, न कि वाराणसी की समस्या को बढ़ाने वाले।
आइये, अरुण ने क्या लिखा था:-
स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट: कहीं जाम का सबब ना बन जाए !
वाराणसी। स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट यानी मूलभूत सुविधाओं का विकास, अच्छी सड़कें, ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार, पार्क, कुंड , तालाब, गलियों का सौंदर्यीकरण एवं ई -गवर्नेंस। अपनी काशी में इन दिनों इसी योजना के तहत करोड़ों के काम चल रहे। यह सच है की बनारस के विकास को लेकर सरकार की नीति और नीयत पर सवाल नही खड़े किए जा सकते। प्रधानमंत्री बनने के बाद पीएम मोदी ने काशी की बुनियादी सुविधाओं के विकास में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बीते आठ सालों में लगभग 17 हजार करोड़ की परियोजनाएं स्वीकृत हुई। इनमे तमाम काम पूरे हुए तो करोड़ों के प्रोजेक्ट पर लगातार काम भी चल रहे। बनारस के विकास को नई रफ्तार मिली है।
मगर कुछ कार्य ऐसे है जो जनता की आंखों में खटकने लगे है। प्रोजेक्ट को जमीन पर उतारने की हड़बड़ी पूरे शहर में दिखाई दे रही। देखा जाए तो बनारस का ट्रैफिक सिस्टम दुनिया की सबसे दुरूह व्यवस्था में से एक मानी जाती है। कहा जाता है जो यहां की सड़कों पर ड्राइविंग कर लिया वह किसी भी शहर में गाड़ी चला सकता है। कारण, शहर की संकरी सड़कें और यहां की बसावट। वर्ष 2015 में तत्कालीन डीएम प्रांजल यादव और एसएसपी अजय मिश्रा ने ट्रैफिक व्यवस्था सुधारने के लिए ठोस पहल की। इसके लिए सड़को की चौड़ाई बढ़ाना जरूरी था। बॉटेलनेट करीब 32 चौराहे और तिराहे थे। लिहाजा सड़क किनारे बने अवैध निर्माण को तोड़ने की कारवाई शुरू हुई। शहर के मैदागिन चौक गोदौलिया, मदनपुरा, शिवाला लंका मार्ग को छोड़ दिया जाए तो बाकी शहर की सभी सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने के लिए लगभग ढाई सौ मकान तोड़े गए। उस समय यूपी में सपा की सरकार थी और केंद्र पीएम मोदी थे। तब शहरी इलाके के तीनो सीटो पर बीजेपी के विधायक और नगर निगम में मेयर भी बीजेपी के ही थे। लेकिन उस दौरान किसी ने भी कही कोई विरोध इसलिए नही किया की सभी चाहते थे अपना शहर अच्छा लगे। रोजाना के जाम से किसी तरह मुक्ति मिले। इसका फायदा शहर को मिला। डिवाइडर बनने से काफी हद तक जाम से मुक्ति मिली।
मगर इन दिनों जो काम हो रहे वह भविष्य में जाम का सबब बन सकते है। अब शहर के सबसे पॉश इलाके सिगरा को ही लीजिए। पिछले तीन दिनों से स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत शास्त्री नगर तिराहे के पास सड़क को तोड़कर किनारे पत्थर लगाने का काम चल रहा है। यह पत्थर चौका ढाई से तीन मीटर तक बिछाया जा रहा। इससे सड़क की चौड़ाई काफी कम होनी तय है। जबकि यह कैंट से लंका या गोदौलिया जाने वाला यह व्यस्ततम मार्ग है। अब तक किसी ने भी यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर चौड़ी सड़क को उखाड़ कर सड़क किनारे चौका पत्थर बिछाने का औचित्य क्या है ? जबकि इसी रास्ते से अफसर जनप्रतिनिधि रोज गुजर रहे। लेकिन अफसरशाही और राजनीति के रंगीन चश्मे से देखने वालों को सही गलत कार्य में कोई फर्क नजर नहीं आता। जबकि चार साल पहले तत्कालीन डीएम योगेश्वर राम मिश्र ने इसी तिराहे पर लगे फव्वारा और तेलियाबाग में अवैध निर्माण को तोड़वा दिया था। मगर अब जो हो रहा उसे शहर का कोई भी व्यक्ति, पर्यटक या राहगीर जायज नहीं ठहरा रहा। इसी तरह लहुराबीर चौराहे पर बने पार्क को स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत सड़क की चौड़ाई कम कर दी गई। उस समय भी सवाल उठे। ब्यापारियों ने एतराज जताया। तत्कालीन प्रशासनिक अधिकारियों ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि आदेश ऊपर से है लिहाजा मैं कुछ नहीं कर सकता। परिणाम यह हुआ जिस लहुराबीर चौराहे पर कभी जाम नहीं लगता था आज वहां रोजाना जाम लग रहा। ट्रैफिक पुलिस की एक पिकेट वहां भी लगानी पड़ रही है।
अफसर तो आज है कल कही और होंगे। लेकिन जनप्रतिनिधियों की यह जिम्मेदारी है की वह केंद्र और राज्य सरकार की परियोजनाओं की मॉनिटरिंग तो कर ही सकते है। कहा काम होना चाहिए और कहा नही, इसके बारे में सुझाव तो दे ही सकते हैं। लेकिन सड़को की चौड़ाई कम करने के मुद्दे पर सभी ने चुप्पी साध रखी है। वह इसलिए भी कही कोई “ऊपर” यह शिकायत न कर दे की फलां जनप्रतिनिधि इस काम को रोक रहे?
काशीवासियों का कहना है जो भी विकास कार्य हो रहे उसके भविष्य की संभावनाओं को अवश्य देखा जाना चाहिए। ऐसा न हो जो भी काम हो रहे वह लोगो की परेशानी का सबब बन जाए। स्थानीय प्रशासन और जनप्रतिधियो को इस पर विचार करने की जरूरत है।