यह रेप सिर्फ सेक्स का भूत नहीं है

मेरा कोना

संचिता उपाध्याय

5 साल की उस मासूम बच्ची के साथ जो कुछ हुआ, उसे हैवानियत कहना भी हैवान को ज़लील करने जैसा होगा। पहले महिलाएं और अब बच्चे। इतना तो तय है कि समाज का वल्नरेबल तबका निशाने पर है। कल तक हम महिला सुरक्षा बिल के लिए लड़ रहे थे, लेकिन क्या अब बाल सुरक्षा कानून को रीव्यू करने पर भी बहस छेड़ेंगे?

सदियों से यही सब होता चला आ रहा है। दिल्ली गैंग रेप के बाद जो माहौल बना था, उससे लगा था कि शायद कुछ बदलाव आएगा। लेकिन यह उम्मीद बेमानी साबित हुई। बच्चे हमेशा से ईजी टारगेट रहे हैं, लेकिन अब जब महिलाओं ने भी अत्याचारों और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा दी है, वे अपने हक के लिए खड़ी होने लगी हैं तो बच्चों पर आ गए। अब क्या हम बच्चों को भी उनके बचपन में यह सिखाएं बैठाकर कि ‘बेटा तुम्हें कोई यहां छुए तो यह पैपर स्प्रे जो तुम्हारे बैग में रखा है इसे उसकी आंखों में झोंक देना।’?

आखिर यह कैसी कुंठा है? जब भी हम इस तरह की ज्यादतियों पर बात करते हैं तो बात सिर्फ और सिर्फ सेक्स पर आकर टिक जाती है। लेकिन हवस क्या किसी बच्ची के शरीर में शीशी या खिलौने घुसा देने का फितूर चढ़ा सकती है? दोष दरअसल मानसिकता में है। सेक्स करना, काटना, नोचना, खसोटना हवस का नतीजा हो सकता है, लेकिन निर्भया के पेट में रॉड डाल देना, 5 साल की मासूम बच्ची को बोतल से बींध देना, मैं इसे सेक्स का भूत नहीं समझती। दूसरों को परेशान करने में मिलने वाली खुशी ही इसकी वजह है। ‘सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स’ करवाता है इन लोगों से यह सब। खुद को बड़ा, ताकतवर, माचो और ‘मर्द’ साबित करने की मूर्खतापूर्ण कोशिश इन सब चीज़ों का कारण है।

फांसी देने से क्या इसका इलाज हो जाएगा? हम कहां जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं? पहले रामसिंह के लिए फांसी मांगी, अब इस दरिंदे के लिए फांसी मांग रहे हैं। लेकिन क्या इन्हें फांसी मिलने से समाज को सही दिशा मिल जाएगी? क्या सबकुछ ठीक हो जाएगा? क्यों आज हमारे बीच इतने फासले हो गए हैं कि हमें पड़ोसी का बच्चा बच्चा दिखाई नहीं देता? क्यों हम खुद में इतने खो गए हैं कि अपने, अपनी इच्छाओं के और अपनी जरूरतों के अलावा सब चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं?

मैंने पहले भी कहा है कि शुरुआत खुद से कीजिए। सार आज भी यही है। हां, आज दिन के 24 घंटे भी हमें कम लगते हैं। क्या करें, वर्क प्रेशर ही इतना है। लेकिन जरा उन 24 घंटों में से 5 मिनट निकालकर सोचिए कि यह समाज क्या हमारा ही परिवार नहीं है? बेशक अपने आस-पड़ोस में बैठकर घंटों गप्पे मत मारिए लेकिन घर से निकलते वक्त कम से कम एक दूसरे को देखकर 2 सेकंड की मुस्कान तो दीजिए। ज़रा-ज़रा से झगड़े को इज़्ज़त का सवाल बनाना छोड़ कर देखिए। झुकने को कमज़ोरी मानना बंद कीजिए। पेशंस से काम लीजिए। क्या पता कुछ हल निकल आए।

रही बात इस हैवानियत के विरोध की। विरोध ज़रूरी है। बिल्कुल ज़रूरी है। होना भी चाहिए। लेकिन हाथ जोड़कर निवेदन है कि इसे पिकनिक का बहाना या ‘हट के’ टाइप इवेंट मानकर वहां मत पहुंचिए। सड़कें जाम मत कीजिए। खंभों पर लटक कर या अराजकता फैलाकर कुछ नहीं मिलेगा। पब्लिक इंट्रस्ट लिटिगेशन्स, राइट टु इन्फर्मेशन, राइट टु रीकॉल, एफआईआर दर्ज कराना… ये सब ब्रह्मास्त्र जो देश की व्यवस्था आपको देती है, उनका सही और पूरा इस्तेमाल कीजिए। यह सच है कि वक्त लगेगा। क्या करें, भ्रष्टाचार हमारी जड़ों में जो घुस गया है। लेकिन कोई भी बड़ा और स्थायी बदलाव मिनटों में नहीं आता।

70 साल होने आए हमें भटकते-भटकते। अब स्थायी समाधान ढूंढना जरूरी है।

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