जवानी जाते ही घुटने जवाब दे गये, पर मुंह जवान रहा शहनाई का

मेरा कोना

: लीजेंड्स ऑफ बनारस (पांच) : 5 पड़पोतों समेत इस खानदान में अब 80 से ज्यादा लोगों की रसोई पकती है : अब कहां रही हुनर परखने की औकात और कहां गये पारखी : शहनाई से मोहब्बत ने बिस्मिल्लाह को बनाया भारत रत्न : बातचीत के दौरान भी रियाज करते हुए प्रतीत होते हैं शहनाई सम्राट : पिछले पैंतालिस सालों से अपने खाते में लगातार बुहारते रहे सम्मान : 96 बरस वाले बिस्मिल्लाह खान की नाराजगी भी सुरों के बीच दिखती थी :

वाराणसी। यकीन नहीं होता है कि बिस्मिल्लाह खान अब हमारे बीच नहीं रह गये। जिन भी लोगों ने उस्ताद को देखा या उनसे बतियाया है, उसकी जिन्दगी में शहनाई की गूंज जिन्द गी भर थिरकती रहेगी। ऐसे शख्स कभी नहीं भूल सकता है कि चाहे कोई बात चल रही हो, कोई सवाल हो अथवा किसी भी किस्म का मौका, प्रख्यात शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के होठों से ज्यादातर वक्त केवल शहनाई के तोड़े ही निकलते रहते थे। उनकी बातचीत शब्दों की सहायता से तो बेहद कम होती थी, शहनाई के स्वरों के आरोहों और अवरोहों की मार्फत वे अपनी बात पूरी तरह समझा ले जाते थे। उनके इन संगीत शब्द-स्वरों के साथ संगत करते थे उनके थिरकते हुए हाथ और बमुश्किल सम्भाले गये दांत। दरअसल, उनके जितने भी दांत थे, उन्हें डॉक्टंरों ने बमुश्किलन एक तार से जबड़े की शक्ल दे दी थी। जैसे ही उनका जबड़ा हिलता था, उनकी नकली बत्तीसी एकदम खड़खड़ा देती थी। लेकिन उसमें भी एक लाजवाब रिदम थी। दरअसल, उनका मुकम्मिल शख्सियत ही संगीत थे, जिसके सारे साज उनके अंग-प्रत्यंग ही थे और साजिंदे थे वे खुद उस्ताद बिस्मिल्लाह। वे तो अब गुस्सा जाहिर भी करते थे तो शहनाई के स्वरों की मार्फत।

बातचीत के लिये मुकर्रर समय के बाद वे अपने शागिर्दों और शहनाई के अलावा किसी से नहीं मिलते। शहनाई से उनकी यह बेपनाह मोहब्बत जायज भी थी। आखिर अपने 96 साल के जीवन में उन्होंने सबसे ज्यादा वक्त शहनाई को सीखने, साधने, बजाने और सुनाने में ही बिताया। शहनाई उनके मुंह पर तब से लगी हुई थी जब वे इसमें सिर्फ फूंक ही मार पाते थे। और अब उनकी सांसों को सुरों में बदल देने वाली शहनाई से निकले स्वर श्रोताओं को झूम उठने पर मजबूर कर देती थी। देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न उन्हें आखिर यूं ही तो मिल नहीं गया।

उस्ताद ने मुझसे लम्बी बातचीत की। शुरूआत बेहद तल्खी से हुई। उन्हें ऐतराज सख्त था कि बिना शहनाई को पूरी तरह समझे, कोई भी अनाड़ी शख्स उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से कैसे बतिया सकता है। कई बार तो ऐसा लगा जैसे उन्होंने मुझे अपने घर से बस अब निकाला, तब निकाला। वह भी पूरी बेइज्जतती के साथ। लेकिन भी शायद ठान कर तय कर चुका था कि चाहे कुछ हो जाए, उनके पोपले मुंह से थूक की बौछारों को मैं अपने चेहरे पर बर्दाश्त करने के बीच जी-भर कर बातचीत किये बिना उनके दरवाजे से नहीं निकलूंगा। शहनाई में ताज खां घराने से खुद का रिश्ता बताते हैं बिस्मिल्लाह खान। उनके खानदान में शहनाई की तानें ही गूंजा करती थीं। उनका खानदान हलालखोरों का था, जिसे पूर्वांचल और खासकर बनारस में सफाई-कर्मचारी के तौर पर पहचाना जाता है। नाना के साथ ही दादा के भी खानदान में सभी लोग शहनाई बजाया करते थे। बिहार के बक्सर जिले में शहनाई वादक पैगम्बर बख्श के घर 21मार्च सन 1916 में पैदा हुए थे बिस्मिल्लाह खान। मां का नाम मिट्ठन बाई था। दो भाई और तीन बहनों में तीसरे नम्बर के थे बिस्मिल्लाह खान। पढाई तीसरे दर्जे तक ही सीमित होकर रह गयी। लेकिन खिलौनेनुमा शहनाई उनके नन्हे हाथों में तो किताबों से पहले ही आ चुकी थी। उनके मामा बनारस में रहते थे। नाम था अली बख्श। ग्वालियर के राजा के दरबार में अली बख्श शहनाई बजाते थे।

दरअसल ग्वालियर के राजा की ओर से बनारस के बालाजी और मंगला गौरी के मंदिरों में पूजा और आरती का नियमित कार्यक्रम होता था। पूजा के पूरे दौरान ही मंदिर के बाहर लगातार शहनाई बजती ही रहती थी और यह शहनाई बजाने का जिम्मा था अली बख्श और उनके साथियों का। इसके लिए छह-सात लोगों के इस पूरे ग्रुप को 35 रूपया महीना पगार मिलती थी। सात साल का होने पर मामू अली बख्श बिस्मिल्लाह खान को अपने साथ बनारस ले आये। अब मामू के साथ ही उन्होंने भी बालाजी और मंगला गौरी के मंदिरों तक नियमित रूप से जाना शुरू कर दिया। साथ में रहती थी छोटी शहनाई।

सुरों को देख-समझ कर उन्होंने भी इसी बीच कब उसी छोटी शहनाई से अपने स्वर निकालने शुरू कर दिये, इसका पता ही नहीं चल पाया। उन्हें तो यह भी याद नहीं कि आखिर कब वे छोटी से बड़ी शहनाई पर उतर कर रियाज करने लगे। वे यहाँ गंगा में खूब नहाते और फिर बालाजी के सामने घंटों रियाज करते, सुर की खोज करते। हर वक्त उनके होठों से सटी रहने वाली शहनाई पर थिरकते-निकलते रहने वाली नयी-नयी धुनों ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए पूरी तरह अपना बना लिया था। मामू के साथ कुल 18 साल तक रियाज किया। मामू के बाद भी साढे छह साल तक रियाज करते रहे। बाद में देश के विभिन्न राजाओं द्वारा आयोजित किये जाने वाले कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं में बढ-चढ कर हिस्सा लेते रहे। वे बताते हैं कि तब राजा-महाराजा ही पाला-पोसा करते थे संगीतकारों को। लेकिन संगीत की बारीकियों की वास्तविक पहचान सिर्फ राजाओं को खूब रहती थी। बिस्मिल्लाह खान बोले:- अफसोस संगीत के वैसे हुनर पारखी अब कहां रहे।

आजादी मिली देश को, तो पारखियों का टोटा हो गया। जब जमीन और दौलत बचाने की कोशिशें जी-जान से चल रही हों तो कौन बात करता परख की और कौन बन पाता पारखी। खैर, पारखी भले न बच पाये हों, लेकिन बिस्मिल्लाह खान ने अपना रियाज कम नहीं किया। शहनाई ही उनकी जिन्दगी और मोहब्बत बन गयी। कि अचानक सन 1961 में देश के राष्ट्रपति जाकिर हुसैन ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित कर दिया। इसके तीन ही साल बाद सन 1964 में  फखरूद्दीन अली अहमद ने उन्हें पद्म भूषण सम्मान दे दिया। सन 1981 में वेंकटरमण ने पद्मविभूषण और फिर सन-03 साल पहले ही उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से केआर नारायणन द्वारा नवाजा गया।

पत्नी मुग्गन बीबी अब नहीं रहीं। पांच बेटे और तीन बेटियों के साथ आज उनके कुनबे में भाई-भतीजों तक के कुल जमा 80 लोग शामिल हैं। बेनियाबाग के निकट गलियों में बने उनके तीन मंजिला मकान में अब पांच पड़पोते भी रहते हैं, जिनमें ढाई साल का गाजी भी है। बेटों में महताब हुसैन, नैयर हुसैन और रामिन हुसैन तो शहनाई बजाते हैं जबकि सबसे छोटे नाजिम हुसैन उन्हें तबले पर संगत देते हैं।

तीन पोतों को भी उन्होंने अपने साथ शहनाई बजाने के काम में लगा रखा था। वे सुबह पांच बजे उठते थे। चाय के बाद नमाज और फिर रियाज। दोपहर का कुछ समय मुलाकातियों को देने के बाद कुछ देर आराम और फिर घनघोर रियाज। शहनाई बैठ कर ही बजाते थे। ज्यादा बैठकी और जवानी में पहलवानी के चलते उनके घुटने अब जवाब दे चुके हैं। लेकिन 96 बरस में जिन्दगी को छोड़ चुके इस शख्स की मोहब्बत आखिरी लम्हे तक शहनाई के प्रति लगातार बढती ही रही थी।

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