आगरा का ड्राइंगरूम है पागलखाना, दो कल्‍चर, चार कब्रिस्‍तान और मां-बहन की गालियां

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: उत्‍पादन जूतों का है, बाद में जुड़ गया है रसीला पेठा : खुद को कल्‍चर्ड कहलाते हैं आगरा वाले, यमुना जी का जो चीर-हरण दिल्‍ली ने छोड़ा था, आगरा ने निर्वस्‍त्र कर डाला : गालियों में बात-बात पर पीस जाती हैं मां-बहनों की इज्‍जत :

कुमार सौवीर

आगरा : हरिपर्वत से जयपुर हाउस तक की दूरी महज एक किलोमीटर होगी। लेकिन हमें पूरा सवा घंटा लग गया। चींटी भी क्‍या खाक कर चलती हो, जैसा ट्रैफिक आगरा में चलता है। ट्रैफिक-इंजीनियरिंग और पुलिस की तैनाती तो कोसों दूर, प्रशासन यहां क्‍या करता है, उसे खुद ही पता नहीं होगा। पांच जगहों पर रूक कर अपने मेजबान की कालोनी का नाम पूछा, हर बार गलत जवाब मिला। जाना था ईरान, पहुंच गये तूरान। बेहाल होकर जब एक शख्‍स से बातचीत शुरू की, तब असल राज का खुलासा हो पाया। सदर बाजार में दवा का धंधा कर रहे राकेश जी बताते हैं:- जैसे किसी घर को समझने के लिए उसकी ड्राइंग-रूप किसी विजिटिंग-कार्ड जैसा होता है, ठीक वैसा ही है आगरा में पागलखाना। हा हा हा, हो हो हो।

बात तो दुरूस्‍त फरमाते हैं राकेश। यह मोहब्‍बत का शहर नहीं, मोहब्‍बत की बेमौत मार डाली गयी मौत का शहर है। और फिर यही क्‍यों, यहां तो एक नहीं, चार-चार क्रब्रिस्‍तान हैं। एक है ताजमहल, दूसरा एत्‍मादौला, और तीसरा है फतेहपुर सीकरी, और चौथा है सिंकदरा। अजी मौत केवल मुसलमान की ही बपौती नहीं होती है। यहां इसका दूसरा पहलू भी मौजूद है। चार महादेव हैं। मलेकेश्‍वर, राजेश्‍वर, पृथ्‍वीनाथ और मनकामेश्‍वर। यह चारों ही चारों भूतों के राजा हैं। न कब्रिस्‍तान में कोई जिन्‍दा शख्‍स रह सकता है, और न ही भूतों के अड्डे पर।

जरा इस लिंक पर क्लिक करके इन राकेश जी से सुनिये, कि असलियत मे आगरा है क्‍या।

गजब है आगरा। बहुत अच्‍छा ही हुआ जो आगरा को राजधानी का ओहदा छिन कर दिल्‍ली पहुंचा गयी देश की राजधानी। वरना, वरना, वरना क्‍या-क्‍या आप नहीं सोच सकते थे कि तब क्‍या-क्‍या नहीं हो जाता। पागलखाना और कब्रिस्‍तान भी क्‍या किसी जिन्‍दा जिन्‍दगी का बेहतर नमूना बन सकता है। अजी हर्गिज नहीं। “हमने तो कभी भी नाय सुनो है कि ऐसो हो जाएगो।”

जो भी सम-विषम हो सकता है, जितनी गति-दुर्गति भी हो सकती है आगरा की, वह आगरा में हो ही रही है। निर्बाध। आगरा की प्रवाहमान आत्‍मा यानी यमुना इस वक्‍त एक जहरीली तेजाबी नाले में तब्‍दील हो चुकी है। यह वही यमुना है, जहां करीब चार सौ साल पहले मुल्‍क के सम्राट अकबर ने केवल अपने राजसी मुआयने के लिए इलाहाबाद की कूच किया था। तब विशालकाय जहाज नुमा सैकड़ों नावें आगरा से इलाहाबाद यमुना से रवाना हुई थीं। लेकिन अब यहां नावों का इस्‍तेमाल ही नहीं होता है। न परिवहन के लिए, न पर्यटन के लिए। मछुआरे भी अगर यहां रहें तो क्‍या करें, यमुना में मछली-कीड़ा का रहवास ही खत्‍म हो चुका है। कम से कम आगरा में। बाद में अगर चम्‍बल जैसी नदियां यहां अपने-आप को यमुना में समर्पण न करें तो यमुना का अस्तित्‍व ही खत्‍म हो जाए।

आगरा में खाने के लिए बस दो ही चीजे हैं। एक तो वक्‍त में मारे गये लोगों की सेवा में जूते, या फिर पैसा वालों के लिए पेठा। रसीला भी केवल जुबान तक ही सिमट गया है। ठीक उसी तरह किताबों में दर्ज दो सांस्‍क‍ृतिक माहौल। यहां दो कल्‍चर का संगम माना जाता है। एक है मुगल, और दूसरा है ब्रज। मुगल अंदाज में मां की गालियां बात-बात पर उगली-उलीची जाती हैं, जबकि बहन की गालियों का पत्‍थर ब्रज संस्‍कृति के नाम पर बरसा जाता है।

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