बोलो सिद्दीकी क्‍यों मारा गया, क्‍यों मारा गया परितोष

मेरा कोना

: तुम दलाली करोगे, पाप-कर्म में लिप्‍त होगे, और हम तुम्‍हें सम्‍मान देंगे यह मुमकिन नहीं : जिनके हाथों में खून सना हो, बेहतर है कि वे पत्रकारों की हत्‍या पर खामोश ही रहें : पापी लोगों का साथ लेकर कोई भी पवित्र आंदोलन नहीं चलाया जा सकता : पत्रकार जी, झांकिये अपना गिरहबान- चार :

कुमार सौवीर

लखनऊ : स्‍वतंत्र भारत का मुख्‍य उप सम्‍पादक हुआ करते थे सिद्दीकी। एक बार वे अपने आफिस में रात  की पाली में काम कर रहे थे। रात आधी से ज्‍यादा हो गयी थी। पेज छूटना ही था। 15 मिनट का समय था, इसलिए सिद्दीकी अपने बाहर चाय की दूकान की ओर बढ़े। रास्‍ते में नाली के किनारे बैठ कर उन्‍होंने पेशाब करना शुरू किया। अचानक कुछ लोगों ने पीछे से चाकुओं से हमला कर दिया। वार इतना सटीक था कि सिद्दीकी ज्‍यादा चिल्‍ला भी नहीं सके और मौके पर ही ढेर हो गये।

सिद्दीकी उस वक्‍त स्‍वतंत्र भारत में बड़े पद पर थे। इसलिए इस हादसे से पूरा प्रदेश हिल गया। लेकिन जब इस मामले का खुलासा हुआ तो लोग सन्‍न हो गये। पता चला कि सिद्दीकी गर्म-गोश्‍त का धंधा करते थे। लड़कियों को फंसाना और उन्‍हें इधर-उधर भेजना उनका असली धंधा था। पुलिस ने सिद्दीकी की आलमारी पर सैकड़ों लड़कियों की तस्‍वीरें बरामद कींं, जिसमें अधिकांश अश्‍लील थीं। केई फोटों में लड़कियों के साथ कुछ पुरूष भी आपत्तिजनक मुद्रा में मौजूद थे, जससे यह भी नतीजा निकला कि सिद्दीकी लोगों को ब्‍लैकमेल करने का भी धंधा करते थे। कहने की जरूरत नहीं कि लड़कियों को ऐयाशों तक मुहैया कराने का काम अकेले किस एक आदमी की क्षमता में नहीं थी। जाहिर है कि इसके लिए सिद्दीकी का एक पूरा का पूरा गिराेह भी सक्रिय था।

बहरहाल, पुलिस ने इस मामले में एक वकील एमपी सिंह को गिरफ्तार किया। लेकिन तकनीकी कारणों से एमपी सिंह बरी हो गया। लेकिन बाद में एमपी सिंह ने वकालत और पत्रकारिता का एक नया गंठजोड़ बनाया। एक चौ-पतिया अखबार निकला, जिसका नाम था नवरात्रि साप्‍ताहिक। इस अखबार में एमपी सिंह ने कप्‍तान से लेकर डीजीपी तक के साथ अपनी फोटो लगा कर तारीफ करती खबरें छापना शुरू किया। बताया जाता है कि इसके बल पर एमपी सिंह का अखबार दारोगा और सीओ तक पर रूआब गालिब किया करता था। इसी प्रक्रिया में उसकी आमदनी भी बेशुमार थी।

बहरहाल, अभी दो दशक पहले ही परितोष पांडे नामक एक पत्रकार को उसके घर में गोली मार दी गयी। हमले में पारितोष मौके पर ही दम तोड़ गया। जब पुलिस ने छानबीन शुरू की तो पता चला कि परितोष का असली काम पत्रकारिता के नाम पर धौंस-पट्टी जमाना ही था। परितोष को तनख्‍वाह तो बहुत कम मिलती थी, लेकिन उसकी जीवन शैली बेहिसाब खर्चीली थी। किसी ऐयाश को मात करती। पुलिस ने पाया कि परितोष झगड़े की जमीनों पर हाथ रखता था। चूंकि उसके रिश्‍ते पुलिस और प्रशासन से करीब के थे, इसलिए जिस भी जमीन पर परितोष हाथ रख देता था, उस पर कोई और नहीं बालने का साहस कर पाता था। लेकिन आखिर यह कब तक चलता। एक दिन पाप का घड़ा भर गया और जमीन के झगड़े में उसे माैत के घाट उतार दिया गया। वह भी तब जब वह अपने घर में हत्‍यारों के साथ बैठ कर शराब पी रहा था। परितोष के श्‍वसुर लखनउ के आज अखबार के ब्‍यूरो प्रमुख हुआ करते थे। नाम था राजेंद्र द्व्विेदी। शुरूआत में तो पत्रकारिता में यह अफवाह फैली कि परितोष की हत्‍या उसके ससुराल के लोगों ने करायी थी, लेकिन जल्‍दी ही यह काेहरा छंट गया।

कहने की तरूरत नहीं कि इन दोनों ही हादसों में मृतकों ने जिन लोगों पर यकीन किया, उन्‍होंने ही उनका काम-तमाम कर दिया। इन सभी को इन दोनों ने पत्रकार बनाने का ठेका ले रखा था। यानी यह लोग उन बदमाशों को सहयोग करने के लिए उन्‍हें पहले पत्रकार बनाते थे, फिर अपना पत्र‍कार गिराेह का प्रदर्शन करते थे।  लखनऊ के तथाकथित पत्रकार हेमन्‍त तिवारी का नाम ऐसे ही लोगों में से एक है। हेमन्‍त तिवारी ने भी लोगों को पत्रकार ही नहीं, वरिष्‍ठ पत्रकार बनाने की फैक्‍ट्री खोल रखी है।

न जाने अल्‍ला, अब क्‍या आगे ? ( क्रमश:)

सीवान और चतरा में पत्रकारों की हत्या से मैं बेहद आहत हूं।

लेकिन अब पत्रकारों को भी अपना गिरहबान जरूर झांकना पड़ेगा।

यह लेख-श्रंखला है। इस पूरी श्रंखला को देखने-पढ़ने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए :-

आइये, अब अपने गिरहबान में भी झांक कर खोजिये पत्रकारों की हत्‍या के कारण

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *