चाय तो दूर, मैंने तो प्‍यार भी किया। पर अब नहीं करूंगा

मेरा कोना

: साहब गये तेल लेने, मैंने तो चाय-पकौड़ी भी खूब बेची ट्रेन और स्‍टेशन पर : तौबा-तौबा। सब कर लूंगा, मोहब्‍बत का इजहार नहीं : आई लव यू कहने के पहले ही जुबान को मानो काठ मार जाता है :

कुमार सौवीर

लखनऊ : अब यार यह तो बहुत बदतमीज़ी है। अफवाह फैलाई जा रही है कि साहब को चाय बेचते वक्त किसी लड़की से मोहब्बत हुई भी या नहीं।

बेवकूफी की बात है। मोहब्बत होना, करना, चाहना, फेंकना तो इंसान की जैविक और भावनात्मकता का अनिवार्य सहज, सरल और मानवीय उद्रेक का प्रतीक होता है।

मैंने भी कानपुर, उन्नाव, सीवान और बहराइच के रेलवे स्टेशनों पर दो साल तक चाय-समोसा बेचा है।

एक किस्सा तो अब तुम यार आज सुन ही लो। हुआ यह कि नानपारा से बहराइच के बीच में चाय-चाय, गरम चाय, गरम समोसा-पकौड़ी का तेज आवाज लगा कर बिक्री करता था। हाजी साहब थे वेंडर-ठेकेदार, उनका ही नौकर था मैं। दुनिया बस इसी तरह मस्‍त चल रही थी।

एक दिन मैंने मार्क किया कि बीच वाले रिसिया स्टेशन से एक लड़की रोज ट्रेन से बहराइच के किसी कालेज को जाती थी। सुबह को आना, शाम को वापसी। उसके प्रति प्रेम उमड़ गया। तब यह नहीं पता था कि प्रेम क्‍या होता है। बस, मन कुनकुनाया सा लगा। लगा, जैसा जाग गया हूं। आप इस तरह समझिये कि कोई गेहूं का बीज दो दिन पसीज होने के बाद अपने पिछवाड़े की जागृति का संकेत दो-चार जड़ों को दिखा कर प्रदर्शित करता है ना, ठीक वैसा ही।

मैंने उसे खोज-खोज कर नमस्ते दागना शुरू कर दिया। कुछ दिन पहले तो वह अचकचाई, लेकिन बाद में मेरी ओर अपने होंठों से स्मित-रेखा खींचना शुरू किया उसने। फिर क्या था…

अपनी समझ से मैंने पकोड़ी तरह समझ लिया कि मामला मस्त है। लाइन क्लियर है। मैंने अपना चाय-पकौड़ी का धंधा धीमा करके अपना मोहब्बत वाला धंधा चमकाना शुरू कर दिया। अब तो रोज का ही काम हो गया यह। इधर मैं उसे देखते ही उसे नमस्ते करता, वापसी में वह मुझे सिर्फ मुस्कुरा कर जवाब दे देती। मैं उत्ते में ही निहाल हो जाता। वह अपने कालेज की ओर चली जाती और मैं उसकी प्रतीक्षा और उसकी नशीले रसीली याद में किसी ट्रेन की गैलरी में कभी मैलानी तो कभी रुपईडीहा तक चला जाता। धंधा का सामान बर्बाद हो जाता। डांट पड़ती और, नुकसान की भरपाई अलग से।

मैंने तय कर लिया एक दिन। आज या तो इस आर, या फि उस पार होगा। शाम तक बहुत हिम्मत जुटाई। और उसे प्लेटफार्म पर देखते ही लपक कर उसके सामने इजहार-ए-मोहब्बत कर ही दिया।

मगर यह क्या !

अचानक एक कर्रा कंटाप मेरे गाल पर पड़ा। दावे की बात तो नहीं करता हूं, लेकिन हो सकता है कि दो-चार और भी पड़े हों। मैं घुसमुण्डिया कर प्लेटफॉर्म पर ही लंबलेट हो गया। टोकरी पलट गई और समोसा आसपास बिखर गया। चाय की केतली की टोंटी से बहती चाय और मेरी निक्कर से निकली धार न जाने कितनी देर तक यूँ ही बहती रहती, अगर चाय वाला हाजी ठेकेदार ने मुझे बांह से उठा कर खड़ा न किया होता। लेकिन मुझे हिकारत से देख कर बोले:- गनीमत है कि ट्रेन छूट रही थी, और उन दो लौंडों ने तुमको कम ही पीटा।

तो दोस्‍तों, वह दिन था, और आज का दिन है। मैंने किसी भी युवती से प्रेम-निवेदन नहीं किया। एकाध प्रेम-पत्र जरूर लिखा, लेकिन उसे पोस्ट करने के बाद वहां से हमेशा के लिए भाग खड़ा हुआ। अब कौन साला इस उम्र में अपनी पैंट गीली कराये? किसी से भी नहीं कहा कि मुझे तुम से मोहब्बत है, आई लव यू या फिर न अपने होंठ आगे गोल बनाकर पुंई-पुंई। आज भी मैं किसी से भी प्यार का प्रदर्शन करना उसी तरह हराम मानता हूँ, जैसे मुसलमान लोग चौथी के बाद पांचवीं शादी। न कोई प्यार, न कोई लव, और न कोई मोहब्बत टाइप ईलू-ईलू। न व्हाट्सऐप पर, और न ही फेसबुक पर। मैसेंजर पर, या इनबॉक्स पर भी नहीं। वहां भी मैं शुरुआत में बहुत अच्छे बच्चे की तरह व्यवहार करता हूँ। बिलकुल भी नहीं हड़बड़ाता। चाहे कुछ भी हो जाये। चाहता जरूर हूं कि मैसेंजर-ह्वाट्सअप पर ऐसे वार्ता-मटक्‍का पर कुछ कह ही दूं, लेकिन बाई गॉड की कसम, हौसले ही टूट चुके हैं, तो अब इमारत क्‍या खाक बनेगी। यही सोच कर अपने मन को मसोस देता हूं। अरमान गरदनिया देकर चहेंट देता हूं।

हकीकत तो यह भी है कि उस हादसे के बाद से मैं बहुत संतोषी हो गया हूं। अरे यार ! अब जिसे भी मुझसे प्यार-श्यार वगैरह करना हो, वो खुद ही क्यों न अपनी बहादुरी का प्रदर्शन करे। अब यह कोई संवैधानिक बाध्यता तो है नहीं कि हर बार कुमार सौवीर ही अपनी ऐसी की तैसी कराएँगे।

हाँ नहीं तो…..

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