: जन-सरोकारों से जुड़ कर अपनी संवेदनशीलता का प्रदर्शन करना, और पदार्थवादी चुनाव में जीतना अगल-अलग बात है : शहर छोटा सा सही, मगर बच्चों व अभिभावकों का लाडला था यह मेधावी युवक : हर शख्स तुम्हें बहादुर और परिश्रमी मानता है, लड़ जाओ चुनाव : जीत गया कुमार सौवीर -तीन :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह एक मेधावी, जुझारू और जन-समर्पित युवक की कहानी है। गरीब परिवार था, लेकिन इसके बावजूद गढ़वाल के श्रीनगर में रहने वाले इस युवक ने गणित से एमएससी किया था। नौकरी तो मिली नहीं, तो उसने ट्यूशन शुरू कर दिया। पूरे मोहल्ले में उसकी पढ़ाई की धाक हो गयी। आसपास के स्कूली-कालेज के छात्र उसके पास आने लगे। ज्यादातर गरीब परिवार के छात्र थे। उनकी ऐसी हैसियत नहीं थी कि वे पैसा दे सकते, उधर इस युवक को भी गरीबी की पीड़ा का खूब अहसास था। ऐसा में पढ़ाई होने लगी, ट्यूशन से पैसा आये या न आये। युवक के पास भीड़ लगने लगी। पूरे श्रीनगर में उसको सम्मान मिलने लगा। अधिकांश छात्र और उसके अभिभावक तक उसके चरण-स्पर्श कर अपना जीवन धन्य करने लगे।
परिवार में दायित्व बढ़ने लगे, तो इस युवक ने इधर-उधर हाथ संभावनाएं खोजना शुरू कर दिया। एक गम्भीर अभिभावक ने सलाह दी कि नौकरी नहीं है तो कोई बात नहीं। जब तक नहीं मिल पा रही है, तब तक ट्यूशन को व्यावसायिक तौर पर शुरू कर दो, लेकिन कट्टर के साथ। मगर युवक से यह नहीं हो पाया। उसके अपने आदर्श थे, और बेरोजगारी के दंश की अनुभूतियां भी। वैसे भी वह ज्ञान बांटने में विश्वास करता था, किसी कठोर साहूकार की तरह निर्मम उगाही नहीं। जिस में क्षमता हो, वह पैसा दे। और जिसके पास पैसा न हो, वह मुफ्त में पढ़े। यही फलसफा था उस युवक का। यह जानते-बूझते भी कि उसके इस संकल्प और आदर्श की आड़ में कई छात्र और अभिभावक ट्यूशन की फीस देने से कतराते हैं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। जिसे जो करना हो, वह करता रहे। किसी की बेईमानी भरी हरकत से हम अपना विश्वास कैसे डिगा सकते हैं, यह साफ मानना था इस युवक का।
इसी बीच श्रीनगर नगर पालिका परिषद का चुनाव की तारीख घोषित हो गयीं। उसने तय किया कि वह इस बार चुनाव लड़ेगा, और अपना भविष्य राजनीति में खोजेगा-खंगालेगा। साथियों से बातचीत की, ढांढस बढने लगा। लोग बोले कि तुम्हारे बारे में तो पूरे शहर को जानकारी है, हर शख्स तुम्हें बहुत बहादुर और परिश्रमी मानता है। ईमानदार हो, कलंक नहीं है, बिना पैसा लिये भी लोगों के बच्चों को पढ़ाते हो, और कमाल की पढ़ाई कराते हो। लड़ जाओ बेटा, लड़ जाओ। कूद पड़ो इस नये रणक्षेत्र में।
तो भइया, वह आदर्शवादी युवक चुनाव-समर में कूद पड़ा। डंका बज गया। जिससे भी पूछो, हर शख्स उसकी साख पर कासीदे काढ़ने लगा था। प्रचार जोरों पर चला, मगर बिना खर्चा के। युवक का साफ कहना था कि जब हमें कमीशन नहीं खाना है, घूस नहीं खानी है, तो हम अनावश्यक क्यों खर्चा करें। हमारी सारी पूंजी तो हमारी साख ही है, और इस बारे में हर शख्स को खूब जानकारी है, तारीफ होती है मेरे कामधाम की।
चुनाव हुआ। मतदान हुआ। मतगणना हुई। घोषणा भी हो गयी। और यह क्या, यह युवक बुरी तरह पराजित हुआ। बस चंद दर्जन वोट ही इस युवक को मिले। इसके बावजूद उसने पत्रकारिता का कोर्स किया, कुछ वक्त बाद उसे नौकरी भी मिल गयी।
कल तक गढ़वाल के श्रीनगर में अपनी चप्पल चटखाने वाला वह युवक आज झांसी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग का प्रमुख है। नाम है चंडीप्रसाद पैन्यूली। (क्रमश:)
यह तो है उन महान लोगों की कहानी, जो भले ही चुनावी दंगल में हार गये, लेकिन उनके आदर्श आज भी लोगों के दिल-दिमाग में ताजा हैं, नजीर बने हुए हैं। ऐसी हालत में कुमार सौवीर की हैसियत क्या है, आखिर किस खेत की मूली हैं कुमार सौवीर, यह सवाल सहज ही अपना सिर उठा लेता है। उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय मान्यताप्राप्त संवाददाता समिति के चुनाव में मैं हार गया। मगर मैं इस पराजय को अपनी एक बड़ी जीत के तौर पर देखता और मानता हूं। मेरी इस मान्यता और अडिग आस्था-विश्वास को लेकर मेरे खुद तर्क हैं, और इतिहास में बेहिसाब नजीरें भरी पड़ी हैं। अगले कुछ अंकों में मैं अपनी इस हार नुमा बेमिसाल विजयश्री का सेहरा आप सब को दिखाऊंगा, और उसकी व्याख्या भी करूंगा। मेरी उस श्रंखलाबद्ध लेख को पढ़ने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-