: सुशील सिद्धार्थ को तवक़्क़ो ही नहीं मिली, तो दम तोड़ दिया : : जिन्दगी भर लखनऊ में बेगारी की इस साहित्यकार ने, पर मुआवजा मिला दिल्ली में : घर के दरवज्जे पर सटी देसी दारू की दूकान हटाने के लिए जी-जान लडा़ये रहे, मगर असफल रहे : साहित्य सम्मेलनों के संचालन को लेकर सुशील का नाम हमेशा विवादित रहा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : सुशील सिद्धार्थ को तो कोई भी लाखों की भीड़ में खोज सकता है। अपनी स्मृतियों के पन्ने खोलिये-टटोलिये तो तनिक। बस दो-चार निशानियां जरूरी हैं। एक जिन्दादिल शख्स। हल्की सनातनी दाढ़ी पर एकाध उंगली के सहारे खुजलाने की दिलकश अदा। पौने पांच फीट का हल्का सा थुलथुल बदन, साहित्य पर चर्चा के वक्त चुटीली कविताओं की छौंक। गहन साहित्यिक चर्चाओं के बीच भी बात-बात पर ठहाकों की गूंज।
खैर, ताजा खबर यह है कि सुशील सिद्धार्थ अब हमारे बीच से हमेशा के लिए विदा हो चुके हैं। इसके बाद वे और उनकी स्मृतियां ही हमारे आप के बीच रहेंगी। खबर आयी है कि दिल्ली में ही उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया है। कहने की जरूरत नहीं कि सुशील के इस दैहिक अवसान ने पूरा हिन्दी साहित्य जगत आर्तनाद कर बैठा है। अश्रुपूरित श्रद्धांजलियों का समंदर उमड़ने लगा है। दयानंद पांडेय ने लिखा है कि:- आज की सुबह रुला गई । संघर्ष ही जिन की कथा रही वह सुशील सिद्धार्थ आज सुबह-सुबह हम सब से विदा हो गए । संघर्ष का समुद्र उन्हें बहा ले गया । उन की ठिठोलियां, गलबहियां याद आ रही हैं । छोटी-छोटी नौकरियां , छोटे-छोटे दैनंदिन समझौते करते हुए सुशील अब थक रहे थे । दिल्ली उन्हें जैसे दूह रही थी । सुई लगा-लगा कर । वह व्यंग लिखते ही नहीं थे , जीते भी थे । एक अच्छे अध्येता , लेखक , कवि , वक्ता , व्यंग्यकार और एक अच्छे दोस्त का इस तरह जाना खल गया है । उम्र में हम से छोटे थे सुशील सिद्धार्थ , जाने की उम्र नहीं थी फिर भी चले गए । वह दिल्ली में रहते थे , पत्नी लखनऊ , बेटा अहमदाबाद । ज़िंदगी में उन की यह बेतरतीबी देख कर मैं अकसर उन से कहता था कि दिल्ली छोड़ दीजिए , लखनऊ लौट आइए । वह मुस्कुरा कर ज़िंदगी की दुश्वारियां गिनाते और कहते बस जल्दी ही आप के आदेश का पालन करता हूं बड़े भाई । लेकिन दिल्ली क्या वह तो दुनिया छोड़ गए । बड़े ठाट के साथ मुझे बड़े भाई कहने वाले सुशील की आब याद रह गई है । उन के शेर याद आते हैं ।
जाने किस बात पर हंसे थे हम
आज तक यह शहर परीशां है।
हाकिमे शहर कितनी नेमते लुटाता है
नींद छीन लेता है लोरियां सुनाता है।
अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि !
कुछ भी हो, करीब 78 से मैं सुशील सिद्धार्थ को जानता हूं। अलीगंज की पुरनिया रेलवे क्रासिंग से सटा उनका मकान है। पिता शिक्षा थे, और उन्होंने ही यह मकान गांव के बाहर बनाया था, जो अब तो शहर की गोद में आ बैठा है। सुशील ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य पीएचडी की, और पेट पालने के लिए हर सम्भव काम छेड़े, मगर हर प्रयास पर उन्हें ठोकर ही मिली। पत्नी और बच्चों का दायित्व उन्हें बार-बार आजीविका के लिए बाध्य करता था। इसके लिए उन्होंने एक बार तो ज्योतिषी का धंधा भी किया, बेहद तन्मयता से। लेकिन वह भी टांट-टांय फुस्स। पिता से कभी बहुत अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे।
हार कर वे दिल्ली पहुंचे, तो मानो लॉटरी ही मिल गयी। नाम भी कमाया, पैसा भी कमाया। लखनऊ के अखबार सुशील को घास तक नहीं डालते थे, दिल्ली ने उन्हें आंखों पर बिठाया। लेकिन इसके बावजूद सुशील ने कभी भी लखनऊ से नाता नहीं तोड़ा। नियमित रूप से आना-जाना बना ही रहा। हां, इसी बीच सुशील ने अपना एक नया अंदाज एडॉप्ट किया। वह था चर्चा में घुसपैठ करना और वहां से अपना वजूद खिलाने की कोशिश करना। इसमें वे सफल हो गये। लेकिन उसका रास्ता उन्होंने विवादों के राजमार्ग से खोजा। कई सम्मेलनों में वे खासे चर्चित और विवादित भी हो गये।
फिर क्या वजह है कि इस मोड़ पर अचानक सुशील ने इस दुनिया को बाय-बाय कर दिया। इसका संकेत करीब चार महीना पहले उनकी फेसबुक अपडेट में छिपा है। जिसमें अपनी फोटो के साथ सुशील ने लिखा है कि:-
जब तवक़्क़ो ही उठ गई ग़ालिब
क्यों किसी का गिला करे कोई।
लेकिन फिर सवाल यह है कि आखिर किस तरह की अहमियत और पहचान के लिए लालायित थे सुशील, यह फिलहाल अंधेरों में ही है। खुदा जाने, न जाने किस दर्द की टीस तड़प रही थी सुशील को। लेकिन अपनी मौत से चंद घंटों पहले ही सुशील ने अपने एक व्यंग्य लेख का एक हिस्सा फेसबुक पर शाया किया था जिसमें उनकी मनोवृत्ति का हल्का का अंदाजा लगाया जा सकता है। सुशील ने लिखा था कि:
बस ने आधा घंटा बाद जहां उतारा वहां से घर लगभग एक मील होगा,ऐसा लगा।
उतरने के बाद दो बातें लगीं।एक तो यह कि वह यहां तन्हा उतरा है।दूसरा यह कि स्ट्रीट लाइट लगभग लापता है।अंधेरा है।भीगा भीगा सहमा सहमा अंधेरा।एक रिक्शा वाला खड़ा था।उसने जगह सुनते ही चलने से मना किया।उसे गुस्सा आते आते रह गया।सोचने लगा कि गांव होता तो लठिया देता।ख़ैर दाएं बाएं देखकर चल पड़ा।आज अजब सन्नाटा था।इधर दुकानें भी नहीं थीं।दूर तक अकेली सड़क।फिर दो तीन सोसाइटी। सोसायटियां भी एकदम अकेली।चुप और सावधान।
यानी गणेश चौक से वाया नया नुक्कड़ वाया धर्मा ध्रुवा अपार्टमेंट ।फिर सुनसान। पुरानी बस्ती को जाने वाली सड़क।आगे एक जगह नाला।उससे थोड़ा आगे एक मोड़।फिर गली।फिर वह मकान जिसके एक कमरे का वह बाशिंदा है।
गणेश चौक से नया नुक्कड़ आते आते अंधेरा और घना हो गया था।लोग बताते रहते हैं कि यह नुक्कड़ रात्रिकालीन सेवाओं के लिए गुपचुप तरीके से जाना जाता है।यहां कमसिन लड़कियां और ठीकठाकसिन औरतें गश्त करती रहती हैं।नेटवर्क गजब है।कब शिकार फंसा।कब जाल सहित कबूतर उड़ा।कब बहेलिया उड़नछू हुआ कोई जान न पाता।पुलिस वाले भी नहीं।पुलिस के ज्ञान को कभी कभी झटका भी लगता।फिर उगाही के मरहम से झटका ठीक हो जाता।
लेकिन अजब है उसने कभी यहां ऐसा कुछ नहीं देखा। इस समय यहां एक औरत खड़ी थी।अंधेरा था।उसका चेहरा नदारद था।यानी साफ़ दिख नहीं रहा था।ऐसा लग रहा शताब्दियों से अंधेरा इतना गहरा है कि लोग स्त्री का चेहरा नहीं देख पाते।बहरहाल, उसने अपनी ओर से मान लिया कि औरत चरित्रहीन है।और पटने या पटाने के लिए खड़ी है।एक मन ने कहा कि हो सकता है यह किसी का इंतज़ार कर रही हो–पति,भाई या बेटा बेटी का।तभी दूसरे मन ने कहा कि ऐसा मानने से मज़ा नहीं आएगा।औरत को गिरी गई गुज़री चालू टाइप की मान लो तो मन भांति भांति से मौज लेता रहता है।