: यह भी हो सकता है कि लालू यादव के विरोधियों ने ही यह पूरी बिसात बिछायी हो : अगर कोई भावुक जज हुआ तो ऐसी साजिशें कभी रंग ला सकती हैं : अदने से प्रॉपर्टी डीलर जैसे मामले तक में जज पर दबाव डालना कोई खास बात नहीं है : कहीं ऐसा दबाव किसी जज की ओर से तो नहीं आया :
कुमार सौवीर
लखनऊ : चारा-घोटाले में अदालत ने साफ मान लिया है कि वह चारा लालू यादव ने भी चर लिया था। इस चरा-चराई में लालू यादव के साथ तब के संयुक्त बिहार के कई आला अफसरों ने भी खूब मौज ली, और जी भर कर चारा चरा। बिना डकार लिये। कहने की जरूरत नहीं कि इस फैसले का असर पूरे बिहार पर पड़ेगा, और खूब पड़ेगा।
अपने तरह के इस अनोखे घोटाले पर बिहार, झारखण्ड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में चर्चाएं शुरू हो चुकी हैं। प्रमुख न्यूज पोर्टल मेरी बिटिया डॉट कॉम ने इस प्रकरण पर हुए अदालती फैसले को लेकर यूपी के वरिष्ठ वकीलों से चर्चा की। इस बातचीत तीन बिन्दुओं पर हुई थी। पेश है कि इस बातचीत का दूसरा हिस्सा, जिसके केंद्र में सवाल यह था कि इस मामले में जज ने जिस तरह यह कुबूल किया है कि उस पर फैसले को लालू यादव के पक्ष में करने का दबाव पड़ा था।
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अवध बार एसोसियेशन के अध्यक्ष एलपी मिश्र इस मामले को बेहद गम्भीर मान रहे हैं। मिश्र बताते हैं कि दबाव का प्रकरण निहायत गंभीर है। हालांकि वे इस बात पर उस जज की तारीफ करते हैं। उनका कहना है कि किसी भी जज के सामने ऐसी हालत में आने पर केवल दो ही रास्ते होते हैं। एक तो कि वह ऐसे मामले से खुद को अलग कर ले। ऐसे में मामला नये तरीके से लटक सकता है। इसके लिए विरोधियों की साजिश हो जाती है। मामला नये सिरे से उठता है। लेकिन इस मामले में जज ने काबिले-तारीफ काम किया है। ऐसे मामलों में जज को खुद को डील करना चाहिए। यह एक मंजे जज का काम है, कि वह उस सिचुएशन को कैसे डील करे। अगर जज इसमें अलग हो जाता है, तो इस की आशंका कभी-कभी हो जाती है कि उसमें मिसचीफ करने वाले की हरकत सफल हो जाए। एक साजिश के तहत जब कोई दबाव डालता है, कि जज सेंसिटिव है, तो साजिश सफल हो सकती है। इसके बाद लोग उसे मैनेज कर सकते हैं। कंटेम्प्ट लगा सकते थे। कर भी सकते थे। करना भी चाहिए था कि तुम्हें कैसे हिम्मत की। लेकिन उसके बाद एक नया-नया चैप्टर खुलने लगता है। यह भी उठने लगता है कि मैंने नहीं किया, किसी और ने किया होगा। बहरहाल, यह फैसला बेहतर साबित हुआ है।
अवध बार एसोसियेशन के पूर्व महामंत्री आरडी शाही इस मामले पर एक नया खुलासा कर रहे हैं। शाही का कहना है कि किसी भी बड़े मामले में दबाव आना-पड़ना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे संवेदनशील मामलों में दबाव तो पड़ेगा ही। यह हमारे समाज की दिनचर्या में शामिल होता जा रहा है। शाही के अनुसार जब एक छोटे से प्रापर्टी डीलर जैसे मामले तक में जजों पर दबाव पड़ सकता है, तो वह तो लालू यादव जी हैं। हमें इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि यह एक बड़ा मामला था, और उसमें हर तरह की सम्भावनाएं-आशंकाएं पनप सकती थीं। हुई भी होंगीं। लेकिन जज को निस्पृह होना चाहिए ऐसे दबावों को लेकर। अगर दबाव पड़ा तो भी कंट्रोल करना चाहिए। यह कोई ऐसी अजूबी बात नहीं थी जिसमें एफआईआर करायी जाती, या फिर उसका खुलेआम जिक्र किया जाता। प्रतीकात्मक तरीके से भी कहा जा सकता था।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खण्डपीठ के वरिष्ठ अधिवक्ता आईबी सिंह इस मामले को बिलकुल दूसरे तरीके से देख रहे हैं। उनका कहना है कि यह तय नहीं कि यह फोन किसने किया है। कोई भी ऐसा एवीडेंस कैसे नापा जा सकता है कि किसने फोन किया, या किसी ने नहीं किया। यह भी हो सकता है कि जज पर दबाव डालने वाली की करतूत खुद लालू यादव के विरोधियों ने की हो। हो मामले को लालू को फंसाना चाहते हों। इसलिए इस मामले में यह हालत ऑब्जेक्शनेबल नहीं दिखती है। और तो और, हो तो यह भी सकता है कि ऐसा कोई दबाव खुद किसी जज ने दबाव डाला हो।
लालू यादव को साढ़े तीन साल की सजा पर कुछ मसले उठ रहे हैं, जो इस मसले पर यूपी के वरिष्ठ वकीलों ने जाहिर किये। अदालत-परिसरों के अलावा भी समाज के विभिन्न क्षेत्रों-कॉर्नर्स पर भी लालू चर्चाओं के केंद्र में हैं। उनके जेल जाने से चारा-घोटाला से जुड़े मामले का पहला चरण भले ही खत्म हो गया है, लेकिन उसके बाद अब राजनीतिक भूचाल जरूर खड़ा हो गया है। हमारा यह आलेख ऐसी ही कॉर्नर्स से रायशुमारी कर रहा है। इसकी बाकी कडि़यों को देखने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:-