: ढाई दर्जन से ज्यादा भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित है निहाल मियां : भाषा सिखाने में पूरा जीवन खपा लिया निहाल उद्दीन उस्मानी ने : 16 साल तक का वक्त क्लास में खटने के बावजूद अगर पढ़ना, सीखना, समझना और बोलने की तमीज न हो, तो यकीनन शर्म की बात है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : बातचीत में आवाज को अटक-भटक देने वाले, कद इत्ता बड़ा कि मानो आसमान से सलमा-सितारा नोंच लायेंगे, चाल ऐसी कि नाजनीनें शरमा जाएं, मुस्की ऐसी कि, कि, कि , खैर छोडि़ये। वरना बातचीत किसी और ट्रैक पर पहुंच जाएगी। फिर तो बात शुरू हो जाएगी उनकी कंजूसी पर, उनकी नौकरी पर, उनकी मोहब्बत और इश्क पर, उनकी मुश्क पर, उस्मानी पर, जिस्मानी पर, झाड़-झंझट पर, वगैरह-वगैरह। हमें इन सब पर क्या लेना-देना। है कि नहीं?
तो जनाब, आज हम बात कर रहे हैं निहाल मियां की। निहाल मियां बोले तो निहाल उद्दीन उस्मानी। अरे वही निहाल, जो बाराबंकी को भले ही निहाल नहीं कर पाये लेकिन हरिद्वार से लेकर का-नी-का कुम्भ तक का कवरेज कर-करा चुके हैं। लेकिन हरिद्वार से ही उन्हें भाषा के हरि के दरवाजे का दर्शन करने का मौका मिला, और निहाल उद्दीन उस्सानी हमेशा के लिए राहुल सांकृत्यायन हो गये। प्रकाण्ड पंडित। फिर क्या था, निहाल का टेम्पो हाई हो गया।
अब थोड़ा पीछे से बात की जाए। निहाल ने अंग्रेजी में एमए किया, और फिर सन-77 में उप्र सूचना विभाग में उन्हें अनुवादक के पद पर नौकरी मिल गयी। पोस्टिंग हुई हरिद्वार में। सन-84 में उन्हें सूचना अधिकारी के तौर प्रोन्नति मिली और फिर कुम्भ में गजब मेहनत कर लिया उन्होंने। यह दायित्व उनके हरि-द्वार में प्रवेशद्वार की दक्षिणा अथवा उनके यज्ञोपवीत के तौर पर देख जा सकता है। जहां उन्होंने अपने प्रति सूचना विभाग जैसे सरकारी विभाग में उपेक्षा और अपमान का दंश झेला, जहां नियम तो खूब हैं, लेकिन उनका पालन करने-कराने वाले एक भी व्यक्ति नहीं। किसी में साहस तक नहीं है कि इन नियमों का पालन करा सके। थोपे गये अफसर यहां दबंग और दरिंदों की तरह नोंचते-खसोटते रहते हैं, और सूचना विभाग के मूल आदिवासी उन अफसरों के हरम की बेगमों की तरह अपनी शौहर से चंद पल छीनने की जद्दोजहद में सहकर्मियों के बीच अन्तर्कलह में जुटे रहते हैं। लेकिन निहाल उन हरम-कलह से असंपृक्त रहे, लेकिन इसी हालत ने उन्हें स्वर्ग-आरोहण के मार्ग पर आगे बढ़ा दिया। सूचना विभाग की नौकरी उन्होंने मार्च-10 में हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दी, पिण्ड छूटा।
भाषा सीखना, बोलना, लिखना, सिखाना और पढ़ाना उनके सिर पर किसी जिन्न-भूत की तरह चढ़ा रहता है। आज हालत यह है कि निहाल मियां ढाई दर्जन से ज्यादा भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित माने जाने हैं। भाषा सिखाने में पूरा जीवन खपा लिया निहाल उद्दीन उस्मानी ने। निहाल तो भाषा की एडवांस टीचिंग के हिमायत करते हैं। उन्होंने इसके लिए खासी मेहनत की है, अथक। वरना मजाल है किसी की, कि कोई किसी को महज 7 दिनों में भाषा सिखा दे। उर्दू तो वे सिर्फ चार दिनों में सिखा देते हैं, बशर्ते छात्र भी उतनी ही मेहनत करे। इतना ही नहीं, निहाल का दावा है कि वे किसी भी भाषा को तीन महीने में बखूबी और पूरी बारीकी के साथ सिखा सकते हैं। शर्त वही, कि छात्र में भी माद्दा-ख्वाहिश और दम-खम हो। निहाल बताते हैं कि 16 साल तक का वक्त क्लास में खटने के बावजूद अगर किसी में पढ़ना, सीखना, समझना और बोलने की तमीज न हो, तो यकीनन शर्म की बात है।
निहाल उद्दीन उस्मानी इस क्षेत्र में अकेले नहीं हैं। उनकी टोली में दिव्यरंजन पाठक और डॉ आरती बरनवाल भी शामिल हैं। इन तीनों ने भाषा सिखाने के कई कैम्प एकसाथ भी चलाये हैं। दिव्य रंजन पाठक और डॉ आरती भी भाषा पढ़ते नहीं, जीते हैं। पाठक तो फ्रीलांसर शिक्षक हैं, जबकि डॉ आरती कानपुर के सेंट्रल स्कूल में शिक्षिका हैं। इन दोनों पर बाद में अलग-अलग खबरें लिखी जाएंगी। लेकिन इतना जरूर बता दें कि इन लोगों को आपस में बातचीत करते वक्त आप समझ ही नहीं पायेंगे कि वे किस भाषा में बातचीत कर रहे हैं। जैसे अंग्रेजी, उसी तरह, उर्दू, गुजराती ही नहीं, बल्कि संस्कृत भी।
तीन बच्चे है निहाल के। एक सबा, एक निदा और एक सदफ। सूचना विभाग में संयुक्त निदेशक रह चुकीं कुलश्रेष्ठ उनकी पत्नी है। लेकिन दूसरी मोहब्बत का नाम है भाषा। उन्हें हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी, बांग्ला, तमिल, कन्नड, गुजराती, मराठी, अरबी, पंजाबी, स्पेनिश, फ्रेंच समेत करीब ढाई दर्जन से ज्यादा भाषाओं में महारत है। निहाल ने अरबी जैसी निहायत क्लिष्ट भाषाओं से हिन्दी सिखाने की एक नायाब तकनीकी इजाद की है। वे अब अपने अपनी तकनीकी को वीडियो बना कर यू-ट्यूब पर अपलोड कर चुके हैं, जिनकी तादात करीब ढाई हजार से ज्यादा है।