5 लाख का काम 40 हजार में कराना चाहते थे हिंदुस्तान के मैनेजर, गच्चा खाए

मेरा कोना

: हालत सांप-छछूंदर सी, अब तो जिले के पत्रकर मैनेजर के खिलाफ पुलिस की जड़ें खोदना शुरू करेंगे : हिन्‍दुस्‍तान जैसे अखबार खुद ही अब दलालों को चंद नोटों में संवादसूत्र बना डालते हैं : राजन पक्‍का दलाल है, और शोहरत पुलिस को सेट करने वाले ब्‍लैकमेलर जैसी :

कुमार सौवीर

देवरिया : यह कौन तरीका है तुम्‍हारा। तुम नौकरी कर रहे हो, या फिर धंधाबाजी। हिन्‍दुस्‍तान अखबार के मैनेजर और सम्‍पादक हो तुम। बातें तो खूब करते हो अपने अखबारों में कि नैतिकता बड़ी चीज होती है। तुम चाहते हो कि तुम्‍हारा कर्मचारी भी नैतिक और ईमानदान हो। लेकिन तुम एक मामले में खुद ही चालीस हजार रूपयों की घूस अपने ही क्राइम रिपोर्टर को थमा रहे हो। दरअसल, तुम बहुत नीच हो, और मौका-परस्‍त भी। वजह यह कि तुम साढ़े चार हजार रूपया महीना देते थे देवरिया के रिपोर्टर को, और उसे चालीस हजार रूपयों की घूस में एक बड़ा काम करवाना चाहते थे। ऐसा काम, जिसका बाजार रेट कम से कम पांच लाख रूपयों से कम नहीं होता। लेकिन अब चूंकि मामला फंस गया है, इसलिए अब तुम्‍हारे भाई को जेल जाना ही पड़ेगा। या फिर पैरवी बहुत ज्‍यादा करोगे, तो देवरिया के पत्रकार खुद ही तुम्‍हारे खिलाफ पुलिस की जड़ें खोदना शुरू कर देंगे।

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देवारण्‍य

देवरिया के रहने वाले ओपी श्रीवास्‍तव मूलत: अधिवक्ता हैं और पीटीआई समाचार संस्थान के स्‍थानीय रिपोर्टर भी हैं। अपनी निजी जानकारी, पुलिस कार्यवाही और पत्रकारों के बीच चलती चर्चाओं के मुताबिक उनका कहना है कि दलित एक्ट जैसे धाराओं को काफी गंभीरता और प्राथमिकता के साथ देखा जाता है। इसीलिए हरिजन एक्ट रिपोर्ट दर्ज होने के बाद उस मामले की जांच छानबीन का काम किसी दरोगा को सौंपने के बजाय सरकार ने उसे सर्वोच्‍च प्राथमिकता देते हुए पुलिस क्षेत्राधिकारी जैसे राजपत्रित अधिकारी सही कराने की व्यवस्था दे रखी है। लेकिन ऐसे डरावने मुकदमों को अगर कोई निपटाना चाहता हो, तो उसे कम से कम पांच लाख रूपयों का खर्चा करना होता है। रिश्‍वत के तौर पर पुलिस के सीओ और एसपी वगैरह की जेब में। वह भी तब जब मामला किसी छोटे-मामूली जैसे शख्‍स की संलिप्‍तता में हो। लेकिन अगर मामले में कोई पॉलिटिकल एंगेल हो जाता है, तो फिर राम-बजरंगबली भी साथ नहीं देते।

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रामनरायण तिवारी पर एक दलित को पीटना, उसे जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करना, गंदी गालियां देना वाला मामला पुलिस पर दर्ज हो चुका है। ओपी श्रीवास्‍तव बताते हैं कि ऐसा मामला होते ही पुलिस सक्रिरी हो जानी चाहिए और जितनी भी जल्दी समय हो सके उसको गुण-दोष के आधार पर निष्पादित कर देना चाहिए। लेकिन हैरत की बात है कि पुलिस क्षेत्राधिकारी ने इस मामले में केवल अपने कागज-पत्र ही संभाले हैं और इसीलिए विवेचना में लगातार विलंब होता गया। जिसकी परिणति हिंदुस्तान के क्राइम रिपोर्टर राजन सिंह की बर्खास्तगी के तौर पर सामने आई है। श्रीवास्‍तव बताते हैं कि ऐसे मामलों को दबाने छुपाने या बड़ी करने सामान्य तौर पर कम से कम 5 लाख रुपयों का खर्चा हो जाता है। इसमें सीओ से लेकर ऊपर तक के अफसर अपना-अपना हिस्‍सा बांटते हैं।

लेकिन हिंदुस्तान अखबार के मैनेजमेंट से जुड़े लोग यह चाहते थे इस मामले को अपने स्थानीय रिपोर्टर के हवाले कर दें, और क्राइम रिपोर्टर अपने दबाव का इस्तेमाल करते हुए मामला रफा-दफा कर दे। लेकिन एक पत्रकार ने बताया कि चूंकि सीओ कम वांछित रकम नहीं मिल पायी होगी, तो उसने मामले को लटकाना शुरू कर दिया होगा। एक अन्‍य पत्रकार ने बताया कि यह भी हो सकता है कि यह करतूत भी पत्रकार राजन सिंह की हो। हो सकता है कि राजन सिंह ने सीओ को इशारा कर दिया है कि यह हिन्‍दुस्‍तान अखबार वाली पार्टी काफी मोटी है, इसलिए उसे रुक रुक कर दुहने की कोशिश किया जाए तो ज्यादा दूध निकल आएगा। लेकिन इसी बीच मामला कंट्रोल के बाहर चला गया और राजन सिंह बर्खास्त कर दिया गया।

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पत्रकार पत्रकारिता

एक पत्रकार का सवाल है कि जब यह 20 दिन पहले दर्ज हुई हरिजन उत्पीड़न की रिपोर्ट थी, तो उस पर सीओ कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन सीओ ने इस मामले में लगातार ढील ही दिये रखी। एक पत्रकार का आरोप है कि चूंकि राजन सिंह खुद ही पक्‍का दलाल है, और उसकी शोहरत पूरे जिले में केवल पुलिस को सेट करने वाले ब्‍लैकमेलर जैसी है, इसलिए यह भी हो सकता है कि इस पूरे मामले को राजन ने अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की हो, और पुलिस के नाम पर ज्‍यादा रकम ऐंठ करने की साजिश की हो। और बाद में जब मामला खुल गया हो, तो अखबार ने राजन को अपने दफ्तर से निकाल बाहर कर दिया हो। वैसे भी हिन्‍दुस्‍तान जैसे अखबार भी खुद दो कौड़ी के अखबार होते जा रहे हैं, और इसीलिए वे अब दो कौड़ी के पत्रकार लोगों को अपने दफ्तर में कुर्सी थमा कर दलाली का अभियान छेड़ देते हैं।

हिंदुस्तान अखबार जैसे बड़े संस्थान अपने बड़े-बड़े मामले निपटा लेते हैं लेकिन तनिक सी भी चूक हो जाए तो सारा ठीकरा उस पत्रकार के माथे पर फोड़ दिया जाता है। यह शर्मनाक हालत है। एक अन्य पत्रकार ने बताया कि हिंदुस्तान अखबार अपने संवादसूत्र राजन सिंह को केवल 4500 रूपये का ही भुगतान करता था। ऐसे में राजन जैसे लोग अगर खेल नहीं करेंगे, तो अखबार का खर्चा कैसे चलेगा।

लेकिन हैरत की बात है कि जब प्रमुख न्यूज पोर्टल www.meribitiya.com के संवाददाता ने जब देवरिया हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ वाचस्पति मिश्र से इस बारे में बातचीत करने की कोशिश की तो उन्होंने किसी भी सवाल का कोई भी जवाब देने से साफ इनकार कर दिया। काफी कोशिशों के बावजूद गोरखपुर एडीशन के स्‍थानीय सम्‍पादक आशीष त्रिपाठी से भी बात नहीं हो पायी। (क्रमश:)

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