: जरा सुनिये तो इस गीत को कि हास्य के बोलों में कितना दर्द छिपा हुआ है : आशु चौधरी अर्शी के पड़ोस पर एक शिशु के जन्मोत्सव में सोहर की चंद लाइनें : बहुत पढ़ लिख गये हम, सुना है स्त्रियाँ अंतरिक्ष तक पहुँच गयीं :
अर्शी
आगरा : पड़ोस के एक घर में बेटा पैदा हुआ है। स्थानीय बोली में महिलायें सोहर गा रही हैं। ढ़ोलक की थाप के साथ ही लयबद्ध ऊँचे स्वर में एक साथ गाने की आवाजें कानों में पड़ रही हैं। सोहर के बोल हैं:-
आज तो ढोलकिया बाजी
रंगमहल में…..
दादी आयें चरुये धरायें
रंगमहल में…..
बूआ आयें सतिये धरायें
रंगमहल में…..
चरुये धराई नेग माँगें
रंगमहल में…..
सतिये धराई नेग माँगें
रंगमहल में…..
इतना नेग कहाँ से लाऊँ
रंगमहल में…..
छोरा कर पछताई मेरे राजा
रंगमहल में…..
जासे(इससे) तो मेरे छोरी होती
रंगमहल में…..।
आह री विडम्बना!
अंकुर फूटता बीज से
मन का कोढ़ भी फूटा
अपेक्षाओं से………..।
पौधा “बीजदायक” ही हो,
अगली फ़सलों के लिये
कोख़ तो उधार लेलेंगे ॥
ये सरल बुद्धि में इतनी भी क्षमता नहीं छोड़ी, कि ये भी जान पायें कि जो कह रही हैं उनके मायने क्या हैं? सहज हास्य में एक पीड़ा भी है, जिसे वे कभी समझ पाने की क़ूवत ही नहीं रखतीं।
बहुत पढ़ लिख गये हम । सुना है स्त्रियाँ अंतरिक्ष तक पहुँच गयीं हैं। मैंने भी महसूसे बहुत से परिवर्तन…..।
उफ़्फ़! फिर से ये आवाज़…
”जासे(इससे) तो मेरे छोरी होती
रंगमहल में…………..।”
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