गरीबों के घर बेटी मल्लिका नहीं, मलूकन पैदा होती है

सक्सेस सांग

: मलिका यानी नेपाल की तराई वाले बहराइच के नानपारा की नेता मलूकन : 15 साल तक नगर पंचायत में हुकूमत की है मलूकन-बी ने : लम्बे  समय तक पूरे इलाके में रानी लक्ष्मी बाई के तौर मिली शोहरत : फाकाकशी करता परिवार, तीन शादी और वक्त  के थप्पड़ खूब खाये :

लाचार और बीमार अब्बा, फाकाकशी से बिलबिलाते मासूम बच्चेी इन अपने खाली पेट की आंतडि़यों को सुनहले सपनों में खुशबूदार तश्तरी में भरे मालपुओं की कहानी सुनाते हुए तसल्ली देते थे। दुश्वारियों की हालत में बिना खाये-पिये न जाने कब और कैसे पढ़ाई के ख्वाबों ने इमारत बना डाली, मलूकन समझ ही नहीं पायी। हां, रास्ता  जरूर बन गया। एक मुसलमान ने उन्हें  दस रोजों की शर्त में दस रूपये दिये और एक पहाड़ी ब्राह्मण की बेटी ने हल्का -फुल्का  घरेलू काम के एवज में स्कूल की फीस जमा करवा दिया। आगे की पढ़ाई जिम्मेदारी वहीं तहसीलदार रहे एक दूसरे ब्राह्मण ने ली। लेकिन वक्त‍ ने एक खूबसूरत करवट ली और वही फटेहाल बच्ची बहराइच के नानपारा नगर पंचायत में 15 साल तक हुकूमत करती रही है। नाम है चेयरमैन साहब यानी नसीबुन्निसां उर्फ मलूकन बी।

पूरी रोटी नहीं, केवल उसका एक छोटा टुकड़ा। खोजने के बावजूद ऐसा जगह नहीं मिलेगा, जो नानपारा है। पत्रकार शकील अंसारी बताते हैं कि नानपारा का मतलब है रोटी का टुकड़ा। शाहजहां ने अपनी एक बहू के गुजारा के उनको नानपारा भेंट किया था। पत्रकार अभिलाष श्रीवास्तव उर्फ सोनू के अनुसार दूर-दूर तक सब्जी, खासकर परवल और देश भर के लिए मसूर की आपूर्ति नानपारा ही करता है। लेकिन इसका नाम केवल रोटी का टुकड़ा ही है, गरीबी बेहिसाब, विकास कोसों दूर। बावजूद इसके कि नेपाल के नेपालगंज से सटी बाजार का नाम तस्कटरी की बेशकीमती उगाही के नाम पर रूपईडीहा पड़ा है। यानी नोटों का पहाड़। बस, ऐसे ही असंतुलित माहौल में ही गरीबी के पलड़े पर सन 61 में दिसम्बर की पहली तारीख को मलूकन पैदी हुई। छह बच्चों का कुनबा था बच्छन और जुबैन्निसां का। खाने के नाम पर सिर्फ अक्सर फाकाकशी। गरीबी ने उसके नाम बदल दिया। गरीब के घर आखिर मलिका कैसे रहती। सो, मलूकन कहने लगे। दूसरे सम्पन्न घरों के बच्चों के सपनों और ख्वा हिशों के बल पर मलूकन के भी पंख लग गये। लिखने-पढ़ने के लिए उसने पेट की आग को दिलासा देना शुरू किया तो क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, मदद सबने की। ड्रेस न होने

पर उसे क्लास में बेइज्जत भी किया गया। जनता इंटर कालेज में छेड़खानी पर मजबूत कद-काठी वाली मलूकन ने एक लड़के का हाथ झटका तो पूरी बांह ही उखड़ गयी। छात्र-छात्राओं में नाम हो गया और एक बड़ा गुट बन गया मलूकन का। खिताब मिला, झांसी की रानी। न जाने कब वह सत्संग और भजन में भी शामिल होने लगी।

इसी बीच उसके मौसेरा भाई से शादी हो गयी। उसका नाम था भरईपुरवा वाला अश्फाक। मेहर तय हुआ था 11 सौ। लेकिन ससुराल से वह लौट आयी। हमेशा-हमेशा के लिए यह रिश्ताव तोड़कर। खैर, हालांकि मलूकन चाहती थी कि वह अफसर बने, लेकिन परिवार की हालत के चलते वह सन 77 में अच्छे नम्बर से हाईस्कूल पास करने के बाद रूपईडीहा के रामजानकी इंटर कालेज में गृह-विज्ञान की शिक्षिका बन गयी। पगार थी 200 रूपये। पहला वेतन मिलने पर भाई-बहनों को 5-5 रूपये दिये और सारा पैसा मां के हवाले करके बाबा मजार का सिजदा किया। नया सपना पाल लिया कि प्रिंसिपल बनना है।

लेकिन 84 में श्रावस्ती चीनी मिल में उसकी क्लार्क के पद पर नौकरी मिल गयी। कुछ समय बाद श्रमिक संघ पर वह मंत्री बनायी गयी। अब मकसद हो गया श्रमिक राजनीति जो शहर के मसलों से भी जुड़ गया। नाम भी हुआ। शोहरत बढ़ी तो दायित्वा बढ़े। जल्दी ही मलूकन सपा की महिलासभा की नानपारा अध्यक्ष बन गयी। फिर जिला महिला सभा की भी अध्यक्ष बनीं। बेहाल और असहाय महिलाओं को आत्मूनिर्भर बनाने के लिए मलूकन ने निशां महिला असहायत सेवा समिति नाम का एक एनजीओ भी बनाया। सिलाई-कढ़ाई का काम जोर पकड़ने लगा। इसी बीच शादी बहराइच में कोटेदार मुमताज उर्फ शब्बूए से 11 हजार के मेहर पर। एक प्यारी बच्ची भी हुई। लेकिन अचानक एक बार अपने चाचा से पाकिस्ता न से मिलकर लौटी तो मलूकन की जिन्दगी तबाह हो चुकी थी। शब्बूो ने दूसरी शादी कर ली थी। लेकिन मलूकन को औपचारिक तलाक नहीं मिल पाया तो वह बे-घर हो गयी।

बच्ची समेत मलूकन का ठिकाना लुट चुका था। यह ठोकर बर्दाश्त नहीं कर पायी और मलूकन ने खुद को पूरी तरह पहले पढ़ाई और फिर राजनीति को अपना लिया। अगले बरसों में वह दो बार एमए पास हुई। नाम हो चुका था उसका। 89 में उसे नगर पंचायत में मानद सभासदी मिल गयी तो उसके विरोधियों ने कांटे बोना शुरू कर दिया। उन्हें भय था कि कहीं वह अगले चुनाव में खतरा न बन जाए। तमीज और लहजा के लिहाज से नानपारा में भी एक छोटा-सा लखनऊ बसता है। यहां के पुराने नवाब और नामचीन वकील मोहम्मद अली असगर खां उर्फ जियो-नवाब बताते है कि तब तक मलूकन पर आरोपों की बारिश होने लगी। लेकिन राजनीति की उठापटक में मलूकन खूब फंसी। जियो-नवाब की मानें तो मलूकन जैसा कोई दूसरा नहीं, वह नायाब और बेशकीमती शख्सियत है। खैर, मलूकन गंभीर आरोपों में भी घिरीं।। लेकिन मलूकन ने जबर्दस्त रणनीति अपनायी और सब के मुंह पर ताले लगा दिया। नारा दिया कि मैं खुली किताब हूं। नतीजा यह कि इस चुनाव यानी सन 95 में मलूकन ने अपने सभी दस प्रत्याशियों को धूल चटाते हुए अध्यक्षी हासिल कर ली। राजनीति का ही झंझट रहा कि कभी उसके खिलाफ मुकदमा चला, गबन का आरोप लगा, नगर पंचायत में उसके अधिकार सीज कर दिये गये। इसी बीच वह इंप्रेक्टाइटिस की जानलेवा बीमारी में फंसी, लेकिन पीजीआई में आपरेशन के बाद बची।

लेकिन दूसरी तरफ मलूकन की एक कट्टर विरोधी और सभासद खैरून्निसां मलूकन को बेईमान बताती हैं। प्रदेश कांग्रेस कमेटी में सदस्य  खैरून्निसां का आरोप है कि मलूकन ने केवल अपनी जोड़-तोड़ के बल पर उन्हों ने इलाके की उपेक्षा की। वे आरोप लगाती हैं कि मलूकन ने विकास कार्यों को मंजूर तो किया, लेकिन कामधाम धेला भर का नहीं हुईं। खैरून्निसां ने तो मलूकन पर भ्रष्टामचार और उपेक्षा का आरोप लगाते हुए शहर के बीचोंबीच आत्मदाह तक करने की कोशिश कर डाली थी। उनका आरोप है कि अगर मलूकन चाहतीं तो शहर को संवारा जा सकता था। उनका आरोप है कि विकलांग और विधवा पेंशन जैसे काम बिना पैसे होते ही नहीं हैं।

उधर उनके दूसरे शौहर बहराइच नगर पंचायत में सभासद थे। शब्बू ने 7 साल बाद मलूकन को तलाक दिया। वक्तर बीतता रहा और अचानक अपने एक समर्थक अधिवक्ता एहतराम हुसैन से उसका प्रेम हो गया और उसने अपनी तीसरी शादी कर ली। वकील शिया थे। विवाद खूब हुआ। लेकिन वे डटे रहे। और आखिरकार अगले चुनाव में वह फिर एक बार अध्यक्ष चुनी गयी। एक बेटा भी पैदा हुआ।

आज मलूकन की बेटी लखनऊ में डॉक्टरी पढ़ रही है। उसका बेटा फराज 8 बरस का है और वहीं सेंट पीटर्स स्कूल में पढ़ रहा है। भाई-बहन में खूब छनती है। बेटी को खूब याद है कि करीब 4 साल पहले जब वह अपने पिता यानी शब्बू् से मिलने बहराइच गयी थी, तो कितने रूखे अंदाज में शब्बू ने उससे बातचीत जैसा बस किया था। खैर, चीनी मिल कालोनी में अपने दो कमरे वाले साधारण से परिवार में मलूकन लगातार परिश्रम कर रही हैं। हालांकि उनके पास कार है, लेकिन वे बस से सफर करना पसंद करती हैं। लोगों से बातचीत होती रहती है और खर्चा भी बचता है। मलूकन कहती हैं कि मैंने गरीबी को खूब देखा-भोगा है ना, इसीलिए। प्रतिष्ठा का आलम यह कि नानपारा से लेकर लखनऊ के बीच न जाने कितने लोगों ने मलूकन को सलाम किया और हालचाल पूछा। गनेशपुर यानी घाघरा नदी के घाट पर दर्जन से ज्यादा दूकानों वाली बस्ती में जिस दूकान के सामने मलूकन पहुंचीं, दूकानदार ने पूरे अदब के साथ नमस्ते किया। दूकानदार खुश था कि चेयरमैन साहब उनकी दूकान पर तशरीफ लायी हैं।

मलूकन यानी मल्लिका से हुई बातचीत:—–

आपकी पहली शादी तो बाल-विवाह ही थी।

हां, इस रिश्ते  के लिए मुझसे कभी बात ही नहीं की थी घरवालों ने। उनकी भी कोई गलती नहीं, हालात ही ऐसे थे कि शादी हो जाती। लेकिन अश्फासक उसका खालाजाद भाई था। मैं उसे बचपन से ही भाई की तरह प्यार करता था। फिर भाई से मैं शादी कैसे कर सकती थी। निकाह के वक्तक में मैं खूब रोई थी। निकाह मंजूर की आवाज मेरी हिचकियों में खो गयी। लेकिन विदा होने के बाद मैंने अश्फाक को सारी बातें बता दीं। वह भी मुझे बहन की तरह ही प्यार करता था। गनीमत है कि अश्फाक ने भी मलूकन की भावनाएं समझीं।

कभी मुमताज शब्बू  या अश्फाक की यादें आती हैं

शब्बू से तो नहीं, अश्फाक से खूब बात होती है। आखिर वह मेरा भाई है, वह भी बहन ही समझता है मुझे। घर आने-जाने का सम्बून्धे है। हां, शब्बूा से अक्सकर मुलाकात होती है। मीटिंग्स, में अक्सहर। लेकिन मैं उससे क्याज बात करूं। बस सलाम तक ही संबंध है। मेरी व्यस्तता भी बहुत है। फिर पूरे घावों को क्योंम खोदा जाए। नहीं, नहीं। मुझसे किसी से कोई शिकायत नहीं। शब्बू से भी नहीं। हां, बेटी को जरूर दुख होता है। पहले तो वह बहुत पूछती थी कि अब्बा  से मिलवाओ। 10 साल पहले मैं उसे किसी के साथ शब्बूह के घर पहुंचा दे आयी थी, लेकिन वह तब बहुत दुखी हुई जब शब्बू ने उसके 5 रूपये का नोट देकर कहा कि चुपचाप जाओ, वरना हल्लाह होगा। फिर अभी चार साल पहले वह फिर अपने बाप के पास गयी। लेकिन उसने लौट कर रोते हुए बताया कि शब्बू, ने उसके साथ बेहद औपचारिक बातचीत ही की। पानी-चाय तक दूर, दरवाजे के बाहर से ही बस चंद मिनट बाद बिदा कर दिया। अब अपने बाप की शक्ल नहीं देखना चाहती है, तो मैं क्यास कर सकती हूं।

राजनीति में कैसे जुड़ीं

पता नहीं। कुछ नहीं कह सकती। बस एक पत्तेख की तरह, जो किसी दरख्त से टूट कर हवाओं के साथ जहां-तहां उड़ता है। बचपन में क्या।–क्यास नहीं सोचा था। कभी हुआ, नहीं। बस जहां जो समझा, कर दिया। अल्लाह का शुक्र है कि कभी कोई गलत काम नहीं किया। वैसे कैसरगंज के विधायक रहे रामतेज यादव ने मुझे राजनीति का ककहरा सिखाया। तब वे सपा में जिला अध्यक्ष भी थे। वे खोज रहे थे कि नानपारा में किसी जोरदार महिला को। मुझे उन्होंने पहचाना और मैने भी खूब मेहनत की। रंग आपके सामने है।

आप पर कई गंभीर आरोप लगे हैं

लोग तो मुझे न जाने क्या-क्या तक कहते हैं। चरित्र तक पर आक्षेप लगाये गये। आप शायद समझ सकते हैं कि ऐसे हर आरोपों का जवाब तो अल्ला ह के पास भी नहीं होता। मैं अपना काम करती रही, बस यही खैरियत है, वही तसल्ली है। वैसे ऐसे आरोप तो मुझे हौसला भी देते हैं। खैर।

नगर पंचायत में कई सभासद तो आपसे खासे नाखुश थे

हां, मुझे पता है। लेकिन क्या किया जा सकता है। नगर पंचायत अध्यरक्ष का काम ऐसा नहीं होता, कि हर काम किया जा सके। मेरे पास सीमित संसाधन होते हैं और जनता के पास मुझसे ढेर सारी उम्मीयदें। कभी कोई सभासद खुश, तो कभी वह नाराज। 25 लोगों की परिषद में गुटबाजी में 13 सभासद में एक भी खिसका, तो समझिये तो सारा खाका खाक हो जाता है। खासा वक्त तो इसी में निपटता है। मैं मनमर्जी कैसे कर सकती हूं। अरे कोई डीएम सीएम मनमर्जी नहीं कर सकता, तो मैं क्या हूं। अपने विरोधियों और असंतुष्टों से सिवाय इसके और क्यार कह सकती हूं कि मेरा मकसद कभी किसी को ठेस पहुंचाना नहीं रहा।

दो तलाक और तीन शादी। कैसा लगता है।

मुझसे मत पूछिये कि किसी औरत पर कैसा बीतता है तलाक का दर्द। मैं तो तीसरी शादी की सपने में भी नहीं सोचती थी। लेकिन अचानक एक शिया एहतराम हुसैन ने प्रस्ताव रख दिया। मैंने हंसते हुए कहा कि अरे अब बहुत वक्त हो गया है। इस उम्र में शादी मजाक बनेगी। मेरा यह भी तर्क कहना था कि एहतराम की उम्र मुझसे बहुत कम है। लेकिन उन्होंने संजीदगी से बात कही। बोले कि मुहम्मद साहब साहब तब 20 साल के थे जब खदीजा जी की उम्र 40 साल थी। तो जब पैगंबर साहब ऐसा कर सकते हैं तो मैं क्यों  नहीं। जवाब ही नहीं मिला मुझे उनके तर्क का। फिर शिया-सुन्नी का बवाल मैंने खुद ही खारिज करते हुए 96 में शादी कर ही ली। पीजीआई में जब मैं मौत से जूझ रही थी, एहतराम ने अफवाहों को परे कर जो काम किया, वह लाजवाब है।

अब भविष्य। के बारे में क्या रणनीति है

मेरे इलाके में तलाक की तादात बहुत है। तलाक के फौरन ही बिना-सोचे शादी फिर हो जाती हैं। महिलाओं को अब जागरूक करना चाहती हूं कि वे उन कारणों को जरूर देखें जिसमें उनका तलाक हुआ। फिर वे चाहें फैसला करें। आत्म निर्भर भी बनें। असहाय औरतों को रोजी दिलाने की कोशिश में भी हूं।

(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं)

कृपया इन ईमेल पर लेखक से सम्पर्क करें

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