: तब मालिक-सम्पादक दुलराते थे कि “टॉर्जन कम माई ब्वॉय”, अब बोलते हैं “दुत्त, मार तो इस भोंस…वाले भुर्रवा की तो…” : दुनिया को पहचानना चाहते हो तो बेरोजगार होकर भी पत्रकारिता करो। दलाली नहीं, भिक्षा मांगो : लखनऊ और दिल्ली के पत्रकार तो बड़े खिलाड़ी : पत्रकारिता में नंगा अवधूत- एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : लोग अक्सर यह कहते हैं, उलाहना देते हैं कि मैं पत्रकारिता और पत्रकारों पर बहुत तल्ख, कड़वा, जहरबुझा और मारक लिखता हूं। कई लोग तो मुझे पत्रकार-बिरादरी का कलंक कहते हैं, मेरी तुलना उस विषधर सांप की तरह करते हैं जो अपने ही संपोलों को खा जाता है। किसी को मेरी आंख में सुअर का बाल दिखता है, तो कोई मुझे तोता-चश्म पुकारता है, जो पिंजड़े से बाहर निकलते ही अपनी आंखें तरेर लेकर भाग जाता है, नीले आसमान में। मेरे नाम के साथ तो गाली-गलौज कई लोग स्थाई रूप से जोड़ चुके हैं। कोई कहता है कि कुमार सौवीर दलाल है, कोई घुटा चुप्पा, तो कोई मेरी चड्ढी सरकाने के बाद मेरे पिछवाड़े में घुस कर लाइव-रिपोर्टिंग करता है कि “कुमार सौवीर के बहुत चुन्ने काटते हैं।” हरामी या मादर-फादर की गालियां तो अब ऐसे देते हैं, मानो कह रहे हों कि:- “भाई साहब, एक रसगुल्ला और लीजिए, प्लीज !”
कई पत्रकार या उनके समर्थक मेरा कट्टर विरोध करते हुए तर्क देते हैं कि अगर किसी पत्रकार ने छोटा-मोटा खेल कर ही दिया, तो कौन सा पहाड़ टूट गया। उनका कहना होता है कि सरकारी कर्मचारी-अधिकारी तो लाखों-करोड़ों का खेल करते हैं, ऐसे में अगर किसी जिले-कस्बे के पत्रकार ने दस-बीस हजार रूपयों का खेल कर दिया तो क्या हो गया। सवाल यह भी उछाले जाते हैं कि लखनऊ और दिल्ली के पत्रकार तो एक ही झटके में सौ-सौ बकरे हलाल कर अपनी कई पुश्तें पुख्ता कर देते हैं, उन्हें कोई नहीं बोलता। बस्ती में एक अदने से संविदा कर्मचारी से ब्लैकमेलिंग की एक घटना में फंसे एक घटिया-दलाल पत्रकार को बचाने के लिए पूरा प्रेस-क्लब ही जुट गया था। भरी मीटिंग में एक पुरानी प्रतिष्ठित न्यूज एजेंसी का रिपोर्टर उस ब्लैकमेलर को बचाने के लिए बोला कि जब कोई पांच लाख रूपया कमा ले गया है, तो पत्रकार अगर दस-बीस-पचास हजार वसूल रहा है, तो उसमें क्या हर्ज है।
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मैं मानता हूं कि लखनऊ और दिल्ली के पत्रकारों में से कई लोग ऐसे हैं जो अरबों की हैसियत रखते हैं। उनकी पहचान खुलेआम है, वे पूरी बेशर्मी से दिख जाएंगे। उनके धंधे भी खुला-फर्रूखाबादी होते हैं। वे ब्लैकमेलिंग से लेकर ठेके तक, दलाली से लेकर चापलूसी, गुटबंदी से होलसेल तक के धंधे में लिप्त हैं। जौनपुर से उछल कर लखनऊ में कूदे एक पत्रकार को तो लोग होलसेल विक्रेता पुकारते हैं। मैं तो खुले आम कहता हूं कि इनमें से ऐसे होलसेल वाले पत्रकारों को कई दलों के नेता और कई पत्रकार नेताओं ने भी अपने बगल में बिठा-सजा चुका है। ऐसे राज्य मुख्यालय पर ऐसे मान्यताप्राप्त पत्रकारों की तादात अब हजारी तक पहुंच गयी है, इसके पीछे यही लोग जिम्मेदार हैं।
लेकिन ऐसी हालातों से क्षुब्ध होकर मुझ से सवाल उछालने वालों से मैं यह पूछना चाहता हूं कि आप क्या किसी अपराध को इग्नोर करना चाहते हैं। अगर हां, तो मैं आपके विरोध में हूं, और हमेशा इसी तरह खड़ा रहूंगा। अरे हम पत्रकार बिरादरी से हैं, जिस का जन्म ही आम आदमी की आवाज उठाने के लिए हुआ है, बेईमानी का विरोध करने के लिए हुआ है, समाज को नयी दिशा देने के लिए हुआ है। किसी की बेईमानी को बचाने, प्रताडि़त की आवाज को उसके गले में ही घोंटने और उसके लिए घटिया तर्क बुनने के लिए नहीं। अगर पत्रकार ही अपने उद्देश्य से हट जाएगा, तो यकीन मानिये कि सर्वनाश हो जाएगा।
एक पत्रकार तर्क देता है कि जब कोई पत्रकार किसी बड़े अफसर या नेता के साथ सेल्फी लेता है तो उसका मकसद खबर हासिल करना ही होता है, अगर वह ऐसे लोगों की घनिष्ठता में नहीं रहेगा, तो उसे खबर कौन देगा। अब सवाल यह है कि आपका जन्म ऐसे नेताओं-अफसरों के साथ सेल्फी के लिए हुआ है या फिर खबर के लिए। चलिए आपकी बात ही मान लेता हूं। अब बताइये कि जो पत्रकार नेता-अफसर के साथ सेल्फी लगा कर फेसबुक पर चर्चा में रहते हैं, उन्होंने कौन सी कोई बड़ी खबर ब्रेक कर दी है। छोटे पत्रकार ही नहीं, लखनऊ तक के पत्रकारों में जमी हजारों पत्रकारों की जमात में अधिकांश लोग सेल्फी के लिए ही पागल रहते हैं। लेकिन खबर के नाम पर ठन-ठन गोपाल बने घूमते रहते हैं। आप अपने आसपास देखिये, और फिर बताइये कि ऐसे किसी भी पत्रकार या अखबार ने पिछले एक साल में कौन सी स्कूप यानी कोई बड़ी खबर ब्रेक की है। जबकि इसके ठीक उलट, आप किसी स्वनामधन्य बड़े पत्रकार का नाम बताइये, मैं तत्काल बता दूं कि उसकी कौन सी खबर में दलाली का एंगल क्या था। (क्रमश:)
यह संकट विश्वास और विश्सनीयता का है, जिसकी गंगोत्री हुआ करती थी पत्रकारिता और उसके मुतवल्ली-प्रहरी हुआ करते थे पत्रकार। लेकिन चरित्र-स्खलन की रपटीली डगर में सबसे ज्यादा स्पीड ले ली पत्रकारों ने। क्या बांदा, चित्रकूट, पीलीभीत, चंदौली, जौनपुर या फिर बस्ती और कानपुर तथा बुलंदशहर, अथवा लखनऊ और दिल्ली। हर जगह यही कींचड़। हालांकि आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं, जो इस अधोगति का विरोध करते हैं, लेकिन केवल चंद ही। इनकी गाथा और मेरे अनुभव को मैंने श्रंखलाबद्ध लिपिबद्ध किया है। मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझ पर कोई खफा होता है अथवा प्रसन्न। मैं तो अपनी बात कहूंगा जरूर।
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