इत्र-नगरी में छिपी निकृष्‍ट सोच और घटिया करतूतें

सैड सांग

: बधाई हो, तुमने त्‍यागमयी स्‍वतंत्रता सेनानी के सारे चिन्‍ह तबाह कर दिये: नाम पर बने शिलापट्ट को तोड़ दिया गया, ताकि जगह पर कब्‍जा कर दूकान बनायी जा सके : पूरा जीवन आजादी के आंदोलन के प्रति समर्पित रहे गुरूजी :

देवेंद्र दुबे

कन्‍नौज : कभी कान्‍यकुब्‍ज देश की राजधानी रहे कन्‍नौज की शोहरत आज भी इत्र या सुगन्धि को लेकर है। इसीलिए कन्‍नौज को इत्र-नगरी कहा जाता है। लेकिन बहुत कम ही लोग इस तथ्‍य से अवगत होंगे, कि कन्‍नौज में मानसिक दिवालिया पन भी बेशुमार है। अपनी इन्‍हीं छोटी सोच, निकृष्‍ट कृत्‍य और नीच लक्ष्‍यों की बदबू को छिपाने के लिए ही शायद कन्‍नौज ने अपने बाहरी आवरणों पर इत्र छिड़कने की कोशिश करते-करते खुद इत्र-नगरी का खिताब हासिल कर लिया। कौन जाने।

प्रधान मन्त्री जी  के आह्वान पर आज  ९ अगस्त को शहीदों को याद किया गया। मुझे लगा कि यदि इस अवसर पर भी मै  “गुरूजी ” के सम्बन्ध में मौन रहता हूँ तो आत्म -श्लाघा से बचने के प्रयत्न की प्रक्रिया में पाप का ही भागी होऊँगा। अतः यह नमन उन अनाम स्वतन्त्रता सेनानियों के नाम जो इतिहास के पन्नों में गुम क्या होते ,जब आए ही नहीं क्योंकि राष्ट्र -भक्ति उनका  शुद्ध ,स्वार्थ -रहित स्वाभाविक जज़्बा था और देश को स्वत्तन्त्र कराने के लिए किया गया उनका उद्योग उसी की स्वाभाविक परिणिति।

कन्नौज की ऐतिहासिक धरती पर जन्मे इस स्वतन्त्रता सँग्राम -सेनानी का पूरा नाम पण्डित शिव मोहन लाल दुबे था और  “गुरूजी “का सम्बोधन उन्हें पंडित मोतीलाल नेहरू द्वारा दिया गया था और तत्‍पश्चात पूरी जिन्दगी वह इसी नाम से जाने गए। १९३० के असहयोग आन्दोलन के दौरान उन्हें कठोर कारावास का दण्ड दिया गया और अर्थ -दण्ड भी लगाया गया। अर्थ दंड जमा करने से मना करने पर कठोर कारावास की अवधि और बढ़ाई गई। कारागार में जुल्मों  के विरुद्ध विद्रोह करने पर जिला जेल फतेहगढ़ से जिला जेल फ़ैजाबाद स्थान्तरित किया गया ,जहाँ उन्होंने सजा की शेष अवधि बिताई।

अपनी लोक गायकी और ओजपूर्ण वाणी के धनी इस व्यक्तित्व ने साम्प्रदायिक और संकुचित भावनाओं से अलग रहकर सार्वजनिक जीवन अलग ढंग से जिया। वह जीवन पर्यन्त शुद्ध राष्ट्रवादी ही रहे और तत्कालीन जन के लोक प्रिय गुरूजी बने रहे। क्योंकि उनकी राष्ट्र भक्ति स्व -स्फूर्ति और निश्चल थी अतः अपने कारावास के एवज में उन्होंने कोई भी सरकारी अनुग्रह स्वीकार नहीं किया और उनकी इस त्याग भावना का सम्मान उनके परवर्ती परिवार जनों ने भी किया और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानीओ के आश्रितों को मिलने वाली किसी सुविधा का लाभ लेने का विचार तक उनको नहीं आया। बोले:- यह देश के प्रति मेरा निजी युद्ध था।

पर  ५० के दशक  से प्रारम्भ कन्नौज की ओछी और जातिगत राजनीति ने उनको भुला सा दिया। यहां तक कि अपनी-अपनी जाति के सेनानियों के नाम पर मार्गों के नामकरण किये गए पर उनको जान बूझ  कर छोड़ दिया गया। बहुत बाद (२०००-०१) में एक उत्साही और ईमानदारी से काम करने वाले नगर पालिका अध्यक्ष ने उनके निवास को जाने वाले मार्ग का नामकरण उनके नाम पर किया जिसको संकीर्ण मानसिकता के तथाकथित सम्भ्रांत लोगो ने रात को चोरों की तरह टुकड़े -टुकड़े कर सड़क पर डाल दिया। प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। नगरपालिका अध्‍यक्ष ने दोबारा शिला पट्ट लगवाया जिसका हश्र पुनः वही हुआ। और वहां पर एक दुकान की सीढियाँ बना दी गयीं जो अनाधिकृत हैं। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि नाम पट्ट पुनः न लग सके। प्रशासन पुनः सोता रहा।

आज उनको कोई और याद करे न करे पर यदि मैं न करूँ तो पाप का भागी होऊँगा। जैसा प्रारम्भ में कहा, क्योंकि  ” गुरूजी  ” मेरे जैविक बाबा के सगे बड़े भाई थे और मेरे कानूनी बाबा,  क्योंकि निः सन्तान  “गुरूजी ” ने मेरे पिता को गोद  लिया था। मैंने इस अन्याय को देखा पर मेरी बौद्धिक ईमानदारी ने मुझे हस्तक्षेप करने से रोका क्योंकि वह मेरे बाबा ही नहीं थे इस देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ने की वजह से सबके थे। लेकिन स्थानीय निवासियों और प्रशासन को कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए और उसके लिए यदि मुझे पैरवी करना पड़े तो यह उनका (गुरूजी ) अपमान है  -ऐसा मेरा विचार है। इसे मेरी कायरता न समझा जाए।

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