: बड़ा फर्क है शम्भूनाथ शुक्ल और शम्भूदयाल बाजपेई की लेखनी में : छोटा सम्पादक धरातल पर जवाब खोजता है, दूसरा प्रशंसा का हवाई ढोल बजाता है : शम्भूदयाल ने बरेली के सैकड़ों मजदूरों पर कलम उठायी, जबकि शम्भूनाथ ने हवा में तलवार चमकाया : जमीनी या ढपोरशंखी -एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह दो नजीरें हैं, और यह साबित करती हैं कि हमारे सम्पादकों की सोच, कर्म, उनकी दिशा और उनका कद कहां तक है। इन नजीरों से यह भी साबित होता है कि एक सम्पादक की प्रतिबद्धता क्या है, उनके मूल्य क्या हैं, उनकी रिपोर्टिंग का मकसद क्या है, और वे अपनी रिपोर्टिंग में जिन तथ्यों को अपना आधार बनाते हैं, वे कितने ठोस अथवा कितने हवा-हवाई हैं। इसके बाद ही आपको पता चल पायेगा कि किसी बड़े ओहदे पर अथवा किसी छोटे पायदान पर समानधर्मी दो लोगों की रूचि, दायित्व और उनकी धार का स्तर क्या है।
जी हां, आइये हम आपको दो ऐसे सम्पादकों को आमने-सामने रखने की कोशिश करते हैं जो ओहदे के तौर पर भले ही समान पद पर रहे हैं, लेकिन उनकी सोच का स्तर एक-दूसरे के मुताबिक खासा अलहदा रहा है। एक का नाम है शम्भूनाथ शुक्ल, जो जनसत्ता और अमर उजाला जैसे बड़े अखबारों में सम्पादक रह चुके हैं। वह भी छोटे-मोटे शहरों में नहीं, बल्कि मेरठ, नोएडा, चंडीगढ़ और कलकत्ता जैसे महानगरों की यूनिटों में शुक्ल ने नेतृत्व किया है। जबकि शम्भूदयाल बाजपेई बाजपेई बरेली जागरण और बरेली, हल्द्वानी तथा लखनऊ के दैनिक कैनविज टाइम्स आदि में सम्पादक रह चुके हैं। यह दोनों ही सम्पादक मूलत: पत्रकारिता के कानपुर स्कूल ऑफ थॉट से उपजे हैं। मगर कनपुरिया बड़े सम्पादक शुक्ल ने अपना डेरा गाजियाबाद बनाया, जबकि फतेहपुरी बाजपेई ने बरेली में धूनी जमा ली।
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लेकिन जिस आधार पर हम यह समालोचना-परक यह प्रस्तुति देने जा रहे हैं, उससे आपको साफ पता चल जाएगा कि किसी बड़े सम्पादक के बड़े या छोटे शहर-महानगर अथवा किसी छोटे-बड़े संस्थान में रहने का कोई फर्क नहीं होता है। ऐसा भी नहीं कि जो छोटे शहर या छोटे संस्थान में काम कर चुका है, वह छोटे या निम्न लेखन करेगा। और इसी शर्त के हिसाब से ऐसा भी नहीं है कि जो बड़े महानगर या बड़े संस्थान में काम कर चुका है, वह बहुत सटीक, महत्वपूर्ण, या कोई बेहद प्रभावशाली लेखन ही कर डालेगा, जिसे भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसे अति-महत्वपूर्ण कर्म-दायित्व का खिताब दिया जा सके।
यह इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है, ताकि हम अपने पाठकों ही नहीं, बल्कि पत्रकारों को आइना दिखा सकें, कि लेखन में तर्क, तथ्य और जनप्रतिबद्धता के साथ ही साथ प्रवाह और उसकी शैली का स्तर क्या और कैसा है। हमारे इस प्रयास का अर्थ यह कत्तई नहीं है कि इससे हम इनमें से किसी सम्पादक को श्रेष्ठ अथवा और उसे घटिया साबित कर दें, बल्कि हम तो केवल उस सतर्कता की अपील कर रहे हैं, जो नहीं होनी चाहिए, या फिर ऐसी चूकों से ही पूरी छवि पर एक अमिट दाग पड़ जाता है।
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शम्भूदयाल बाजपेई ने अपने इस लेख में बरेली की एक बंद हो चुकी बडी फैक्ट्री के मालिक, हजारों मजदूरों के साथ ही साथ केंद्र और राज्य सरकारों में बैठे बड़े-बड़े मंत्रियों के साथ ही साथ प्रशासन के अफसरों की कलई उधेड़ने की कोशश की है। इस समस्या को सुलझाने को सिलसिलेवार समझ पैदा करने की कोशिश की है बाजपेई जी ने। पूरे तर्क के साथ। उधर शम्भूनाथ शुक्ल ने अपने एक यात्रा-वृतांत को रोचक बनाने की कोशिशें तो हरचंद की हैं, मगर उसमें अतिरंजना इतनी ज्यादा कर डाली है शुक्ल जी ने, कि पूरा आटा ही गीला हो गया। शुक्ल जी ने जिस गांव-जवांर का जिक्र करते हुए कहा कि वहां की महिलाएं एम-बीए-और बीएड पास हैं। मगर यह नहीं बताया है कि इतना पढ़-लिख कर इन महिलाएं खाली क्यों बैठी हैं। क्या वजह है कि इलाके के उच्च शिक्षा पढ़े-लिखे युवक सैन्य-बलों में क्यों जाना चाहते हैं, या इस चाहने और उसे जमीनी हकीकत में क्या फर्क है।
सच बात यह है कि यह पूरा पूर्वांचल ही पूर्वांचल यूनिवर्सिटी की शिक्षा-अगजर प्रवृत्ति का शिकार है। यहां बीएड-एमए, पीएचडी जैसी डिग्रियां आज भी 50-60 हजार से लेकर 3 से 5 लाख तक में मिल जाती हैं। अधिकांश पीएचडी धारी युवक ठीक एक अर्जी तक लिखने की क्षमता नहीं रखते।
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खैर, हम मान लेते हैं कि शुक्ल जी ने, जाहिर है कि, उन्हीं तथ्यों का जिक्र किया होगा, जो उन्हें पता चली होंगी। लेकिन उस आधार को क्या कहेंगे आप, कि शुक्ल जी ने चंचल बीएचयू के जिस समताघर में दो सौ के करीब छात्र-छात्राओं की मौजूदगी की बात की है, उसमें तथ्य का सत्य आप केवल उसी फोटो से आंक सकते हैं, जिसमें शुक्ल जी के सामने महज और केवल 24 छात्राएं-छात्र बेंच में बैठी हैं। यह तो साफ सफेद झूठ है शम्भूनाथ शुक्ल जी का यह संस्मरण। शुक्ल जी पत्रकार और सम्पादक रह चुके हैं, अगर उनसे ही सत्य के उद्घाटन की उम्मीद नहीं की जाएगी, तो फिर किससे की जाएगी। और जब ऐसा कोई बड़ा पत्रकार-सम्पादक अपनी बात को कहने के लिए झूठे तर्कों-तथ्यों का सहारा लेगा, तो उनकी संततियां-वंशज क्या करेंगे।
शुक्ला जी ने यह तो बता दिया कि इस पूरे गांव-जवांर में स्वच्छता-अभियान बेहिसाब सफल है। उनके हिसाब से इस सफलता को आंकने का पैमाना है हर घर में शौचालयों की मौजूदगी। लेकिन लगातार तीन दिनों तक इस पूरे इलाके के हर गांव और मजरे तक को छान लेने के बावजूद शुक्ल जी ने इस बात पर नोटिस तो लिया होगा, मगर उसका जिक्र करने का साहस नहीं जुटा पाये कि इस पूरे इलाके की हर सड़क, हर पगडंडी पर हर सुबह और शाम को महिलाओं के झुण्ड के झुण्ड लोटा-परेड पर निकल पड़ते हैं।
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हम इसी सवाल को आपके सामने पेश करने जा रहे हैं। इन दोनों ही सम्पादकों के दो लेख हमारे सामने हैं, जिसे हम क्रमश: प्रस्तुत करेंगे। एक आलेख है शम्भूनाथ शुक्ल का, जबकि दूसरा है शम्भूदयाल बाजपेई का, जिसमें इन दोनों की सोच, उनकी सतर्कता, उनके दायित्व, उनके लक्ष्य और उनकी शैली के साथ ही उनके जन-प्रतिबद्धता का आंकलन आप सुधी पाठक स्वयं कर सकते हैं। यह दोनों ही आलेख इन दोनों महानुभावों ने अपने फेसबुक पर प्रकाशित किये थे। शम्भूनाथ का यह आलेख 18 जनवरी-18 को छपा था, जबकि शम्भूदयाल का यह लेख 2 मार्च-18 को छपा था।
यह दोनों ही आलेख इन दोनों की जमीन का मूल्यांकन के लिए आपके सामने अगली कडि़यों के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं। (क्रमश:)
आइये, अब हम आपको दिखाते हैं कि बड़े-बड़ों में जमीनी या हवाई बातों में कितना छोटा अथवा बड़ा फर्क होता है। इसकी बाकी कडि़यों को बांचने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-