संविधान की पहली महिला पहचानी नहीं गई, क्योंकि बैनर तय कर रहा था हैसियत

क्या दीक्षांत समारोह बना लोकतंत्र पर कलंक? राष्ट्रपति की गरिमा को बैनर पर रौंदती तस्वीर

क्या ये है सत्ता के चिपचिपे अहंकार की शर्मनाक मिसाल! :एक तस्वीर, हज़ार सवाल! राष्ट्रपति की गरिमा या पोस्टर की राजनीति

कुमार सौवीर एवंम गौरव कुशवाहा

लखनऊ:भारत की प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का AIIMS गोरखपुर के दीक्षांत समारोह में आगमन देश के लिए गर्व का विषय था। लेकिन यह गरिमा उस समय चूर-चूर हो गई जब एक बैनर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पैरों के नीचे राष्ट्रपति की तस्वीर देखी गई। यह केवल एक ‘डिज़ाइन चूक’ नहीं, बल्कि भारतीय संविधान की आत्मा पर सत्ता के गर्व और प्रोटोकॉल की धज्जियों की राजनीतिक टिप्पणी थी।

जिस मंच पर राष्ट्र की प्रथम नागरिक का स्वागत होना था, वहां सत्ता की आत्ममुग्धता ने नैतिकता की अंतिम रेखा भी लांघ दी। कार्यक्रम के मंच पर बैठे मंत्री, आईएएस अफसर, मेडिकल संस्थान के निदेशक और बड़े नेता – सभी मौन साधे रहे। राष्ट्रपति की गरिमा से खिलवाड़ को न कोई रोका, न कोई टोका।
यह दृश्य लोकतंत्र की मर्यादा पर एक ऐसा तमाचा था, जो लंबे समय तक याद रखा जाएगा।

बैनर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बड़ी तस्वीर सबसे ऊपर, ठीक उनके पैरों के नीचे राष्ट्रपति मुर्मू की comparatively छोटी तस्वीर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। यह दृश्य यह संदेश दे रहा था कि लोकतंत्र में भी एक ‘मुखिया’ बाकी सब पर हावी है – चाहे वो देश की राष्ट्रपति ही क्यों न हों।

यह क्या केवल ग्राफिक्स टीम की गलती थी?
या यह सत्ता के चरम आत्ममुग्ध युग में संविधानिक मर्यादाओं की गिरती समझ का घातक संकेत?

यह कार्यक्रम किसी पंचायत या पार्टी कार्यालय का आयोजन नहीं था। यह AIIMS जैसे सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थान का दीक्षांत समारोह था, जहां राष्ट्रपति स्वयं मुख्य अतिथि थीं। लेकिन प्रोटोकॉल और संवैधानिक प्राथमिकता को नजरंदाज करते हुए उनकी तस्वीर को नीचे, पैरों के पास लगाया गया, मानो वो बस एक औपचारिकता भर हों।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि मंच पर बैठे राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्य मंत्री, आयुक्त, और निदेशक जैसे जिम्मेदार चेहरे क्या इस बैनर को नहीं देख सके? या देख कर भी चुप रहे क्योंकि राष्ट्रपति “राजनीतिक ताकत” का चेहरा नहीं हैं?

ये अपमान न सिर्फ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का है, बल्कि यह संविधान, लोकतंत्र और उन करोड़ों वंचित लोगों का अपमान है जिनकी प्रतिनिधि बनकर राष्ट्रपति मुर्मू भारत के सर्वोच्च पद तक पहुँचीं।

यह दृश्य प्रतीक है उस मानसिकता का, जिसमें सत्ता को संविधान से ऊपर मान लिया गया है। जहाँ प्रोटोकॉल अब सत्ता के पैरों तले रौंदा जाता है और आदिवासी महिला की गरिमा को राजनीतिक प्रचार से छोटा मान लिया जाता है।

तस्वीर से उठे तीखे सवाल

क्या प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) इस अपमानजनक बैनर पर कोई प्रतिक्रिया देगा?

क्या आयोजक अधिकारियों पर कार्रवाई होगी?

क्या राष्ट्रपति भवन खुद इस मामले पर कोई नोटिस लेगा?

या यह घटना भी बाकी विवादों की तरह “डिजाइन की चूक” कहकर भुला दी जाएगी?

भविष्य में यह दृश्य इतिहास में दर्ज होगा — जब भारत की राष्ट्रपति, जो कि एक आदिवासी महिला हैं, को एक सरकारी मंच पर प्रधानमंत्री के पैरों के नीचे दिखाया गया और पूरा तंत्र चुप रहा।

यह घटना सिर्फ एक फोटो नहीं है, यह लोकतंत्र के माथे पर एक गहरा दाग है, जो आने वाली पीढ़ियों को बताएगा कि जब सत्ता अहंकारी हो जाए, तो गरिमा कैसे रौंदी जाती है।

इस पोस्टर के खिलाफ सोशल मीडिया X की प्रतिक्रियाएँ

Dr Mukesh Kumar @mukeshbudharwi लिखते है कि ये तस्वीर साबित करती है कि प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार और संघ परिवार आदिवासी, दलितों को किस नज़र से देखते हैं, कितनी अहमियत देते हैं।
क्या राष्ट्रपति मुर्मू का पोस्टर प्रधानमंत्री मोदी के कटआउट के नीचे होना चाहिए। कोई भी कहेगा नहीं होना चाहिए, मगर है, क्योंकि आज की राजनीतिक असलियत यही है।
मोदी के सामने राष्ट्रपतियों की क्या हैसियत है, इसका प्रदर्शन बीसियों बार हो चुका है। नई संसद के उद्घाटन से लेकर राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा तक बहुत सारे अवसरों पर मुर्मू और कोविंद की अनदेखी, और अवहेलना की गई।
मुश्किल ये है कि इन राष्ट्रपतियों ने भी अपने पद और गरिमा का खयाल नहीं रखा। वे मोदी की मेहरबानियों से इतने अभिभूत रहे कि राष्ट्रपति के बजाया पार्टी कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करते रहे, कर रहे हैं।

डा मुकेश कुमार के द्वारा लिखी गई पोस्ट की लिंक

https://x.com/mukeshbudharwi/status/1940411387882193236?t=cL7zS-29exIom1fo1t3SGQ&s=19

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